01 नवंबर, 2018

नारी बेचारी





थी एक अवला
शोषण का शिकार
रोज की हाथापाई
कर गई सीमा पार
नौवत बद से बत्तर हुई
एक दिन दोनो हाथ
गले तक जा पहुंचे
न जाने कहाँ छुपे
ठहर गए आंसू आँखों में
इतनी क्षमता आई
बगावत करने को
हुई बाध्य वह
अब सहन न कर पाएगी
हिंसा और अत्याचार
है आज की नारी
नहीं अब बेचारी |
आशा

31 अक्तूबर, 2018

बदलता मौसम





बदलता मौसम
 करता आगाज
देता दस्तक घर के
दरवाजे पर |
चहु  ओर फैली हरियाली
नील गगन तले
घर की  कल्पना
 हुई साकार
जब मिला रहने को
हरी भरी वादी में|
जहां तक नजर जाती
मन दृश्यों को समेट लेता
अपनी बाहों में 
 कहीं हाथों से
 फिसल न जाएं  वे पल
वहीं ठहर जाते तो
 कितना अच्छा होता |
वृक्षों पर नव पल्लव आए 
उनसे छू कर आती बयार
जब भी देती दस्तक
भर देती सिहरन तन मन में
भिगो जाती सहला जाती मेरे वजूद को
जितना प्रसन्न मन होता
ठहरना चाहता वहीं |
 थी जो कल्पना मेरी घर की
अब हो गई  साकार
मैंने किया नमन  प्रभू को |
आशा  

30 अक्तूबर, 2018

चाँद पर दाग













सब कहते
 चाँद में है दाग
पर मेरा सोच
ऐसा नहीं
चंद्रमा पर छाया
आ जाती है
वही नजर आती है
जब तब 
कभी सोचती हूँ

 लगा है काजल का दिठोना
टीका है माथे पर 

नजर न लग जाए
माँ ने अपने बेटे को 

सजाया है
सुन्दरता पर

 नजर न टिक पाए
तभी काला दाग

 लगाया है |
आशा