24 अक्टूबर, 2010

एक गज़ल लिखूं

दिल से आवाज आई है ,
कि एक गज़ल लिखूं
वीरान फ़िजाओं पर,
कुछ न कुछ कहूं ,
मंजर उदास लम्हों का ,
कैसे बयां करू,
लफ्ज़ों का कोई ,
ज़खीरा नहीं मिलता ,
दिल में उठे गुबार का ,
कोई हमराज नहीं मिलता ,
रहता हूं तन्हां तन्हां ,
अपना वजूद खोजता हूं ,
गर तेरे दामन की हवा ,
तनिक छू गई होती ,
शायद कोई सितम ,
और ना सहा होता ,
सिलसिला गज़ल का ,
शुरू हुआ होता ,
जलती शमा कि रोशनी में ,
परवाने की तरह ,
शब् भर रहा होता ,
नज्म यूँ ही न बनी होती ,
गर मेरे दिल से ,
आह न निकली होती |
आशा

11 टिप्‍पणियां:

  1. मंजर उदास लम्हों का ,
    कैसे बयां करू,
    लफ्ज़ों का कोई ,
    ज़खीरा नहीं मिलता...

    आशा जी- प्रणाम।
    उदास लम्‍हों को भी आपने अपने शब्‍दों से ताजगी प्रदान कर दी है। बेहतरीन रचना है..

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  2. लफ्ज़ों का कोई ,
    ज़खीरा नहीं मिलता ,
    दिल में उठे गुबार का ,
    कोई हमराज नहीं मिलता ,
    yoon to aapko padhna hamesh ahi acchha lagta hai parantu iss baar aisa laga jaise ye to meri bhi daastaan hai...
    aisa hi kuchh likhne kee koshish kee the..
    plz visit...
    http://poojashandilya.blogspot.com/2010/09/blog-post_21.html

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  3. बहुत सुन्दर नज्म है!
    --
    इसे गजल कहना बेमानी होगा!

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  4. आपकी रचनात्मक ,खूबसूरत और भावमयी
    प्रस्तुति कल के चर्चा मंच का आकर्षण बनी है
    कल (25/10/2010) के चर्चा मंच पर अपनी पोस्ट
    देखियेगा और अपने विचारों से चर्चामंच पर आकर
    अवगत कराइयेगा।
    http://charchamanch.blogspot.com

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  5. अच्छी और भावपूर्ण रचना ! अक्सर ऐसा होता है जब कुछ कहना चाहते हैं तब शब्द साथ नहीं देते और जब शब्दों का जखीरा हाथ लग जाता है तो संवेदनाएं क्षीण पड़ जाती हैं ! सुन्दर रचना !

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  6. आशा जी!
    उच्चारण पर कमेंट करने के लिए धन्यवाद!
    उज्जैन महाकाल के दर्शन करने का मन है!
    मेरा मेल है-
    roopchandrashastri@gmail.com
    और आपका?

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  7. सोचने सोचने में ही लाजवाब नज़्म बन गयी .... बहुत खूब ....

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  8. आह ही कविता बन पाती है...सब कुछ मनचाहा मिल ही जाए तो कविता बनेगी कैसे...

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