25 अक्टूबर, 2010

व्रत

एक दिन एक व्रत लिया
दिन भर खड़े रहने का
सारे दिन मौन रहने का
सोचा दिन भर चुप रहूंगी
एक भी शब्द ना कहूंगी
पर जैसे ही सुबह हुई
आवाजों का क्रम शुरू हो गया
और मौन टूट गया
उस पर भी  था उल्हाना 
जबाब क्यूं नहीं देतीं
कब से पुकार रहे हें
तुम ध्यान नहीं देतीं
इतना शुब्ध मन हुआ
बैठने का मन हुआ
और प्रण टूट गया
फिर सोचा पूजा करू
निर्जला व्रत रखूं
आधा दिन तो बीत गया
फिर सहनशक्ति ने कूच किया
और उपवास टूट गया
जब भी व्रत रखती हूं
कई व्यवधान आते हें
कारण चाहे जो भी हो
हो जाता है मन विचलित
सोच रही हूं अब मैं
कोई उपवास नहीं रखूं
आस्थाओं पर टिक न पाती
सारी महानत व्यर्थ जाती
ऐसे व्रत से लाभ क्या 
जो पूर्ण नहीं हो पाता
मन असंतुलित कर जाता
सत् कर्म से अच्छा
शायद ही कोई व्रत होता हो
मन चाहता उसी पर अडिग रहूं
आस्था उसी पर रखूं |
आशा

12 टिप्‍पणियां:

  1. "सत् कर्म से अच्छा,
    शायद ही कोई व्रत होता हो ,"
    सच बात है, बहुत अच्छे विचार । आभार ।

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  2. सत् कर्म से अच्छा,
    शायद ही कोई व्रत होता हो ,
    मन चाहता है,
    उसी पर अडिग रहूं ,
    आस्था उसी पर रखूं |
    --
    बहुत ही उत्तम सन्देश कविता में दिया है आपने!
    --
    कल मंगलवार को इसका कुछ अंश चर्चा मंच के लिए चुरा लिया है!

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  3. आस्थाओं पर,
    कब तक टिकी रहूं ,
    जो पूरा नहीं होपाता ,
    ऐसे व्रत से लाभ क्या ,
    मन असंतुलित कर जाता ,
    सत् कर्म से अच्छा,
    शायद ही कोई व्रत होता हो ,
    मन चाहता है,
    उसी पर अडिग रहूं ,
    आस्था उसी पर रखूं |
    bahut achhee lines... aur sahi hai aisi aastha par aastha kaise rakhee jaye???

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  4. आशा जी,
    सार्थक चिंतन!!
    हां, अडिग आस्था तो सत् कर्म पर ही हो। यथार्थ!!

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  5. सत् कर्म से अच्छा,
    शायद ही कोई व्रत होता हो ,
    मन चाहता है,
    उसी पर अडिग रहूं ,
    आस्था उसी पर रखूं |
    इससे बडा व्रत कौन सा है? बहुत अच्छा व्रत लिया और असली व्रत यही है। बधाई।

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  6. जब शांति हो तो व्रत आसान हो जाता है .... पर फिर उसकी ज़रूरत भी कहाँ रहती है ...

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  7. बहुत सुन्दर
    सत् कर्म से अच्छा,
    शायद ही कोई व्रत होता हो ,
    मन चाहता है,
    उसी पर अडिग रहूं ,
    आस्था उसी पर रखूं |.....

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  8. सत् कर्म से अच्छा,
    शायद ही कोई व्रत होता हो ,

    -इससे बड़ा व्रत कौन सा हो सकता है भला..

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  9. बहुत अच्छे भाव प्रस्तुत किए हैं आपने.

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  10. बहुत सार्थक और विचारपूर्ण चिंतन ! सत्कर्म में निरत रहा जाए, सत्कर्म में ही आस्था हो और सत्कर्म का ही व्रत लिया जाए यही श्रेयस्कर है ! सुन्दर एवं भावपूर्ण रचना ! बधाई एवं आभार !

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  11. मन चाहता है,
    उसी पर अडिग रहूं ,
    आस्था उसी पर रखूं
    ...........बहुत अच्छा व्रत

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  12. आस्‍था मन में है तो फिर व्रत की कोई जरूरत नहीं। आस्‍था से बड़ा कोई व्रत नहीं। व्रत का वास्‍तविक अर्थ भूखा रहना नहीं, संकल्पित होना है। और आप तो संकल्पित हैं ही ईश्‍वर के प्रति। फिर दूसरे किस व्रत की कोई आवश्‍यकता नहीं रह जाती। रही बात निर्जला और मौन व्रत की तो वह भी ईश्‍वर प्राप्ति का साधन नहीं है। मन शांति और मन शुदि़ध के लिए इन सबकी आवश्‍यकता पड़ती है। लेकिन आप की बातें कहती हैं कि आप निर्मल भी हैं और आपकी सोच भी स्‍वच्‍छ और आस्‍था से पूर्ण है। ऐसे में ईश्‍वर के प्रति बस निस्‍वार्थ आस्‍था रखिए, उपवास वाले व्रत तो हम जैसे लोग करते ही हैं...। बेवजह, बता दें रहे हैं कि आज मेरा मंगलवार है।

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