22 फ़रवरी, 2011

मेहनतकश

मेहनतकश हैं
धूप में करते काम
श्रमकण उभरते माथे पर
फिर भी नहीं करते आराम |
सड़क के किनारे
कच्चे झोंपड़ों में
रहते गुदड़ी के लाल
काटते रात उन्मुक्त आकाश तले |
रहते प्रकृति के सानिध्य में
सुबह चूल्हे पर बनी रोटी
कच्ची प्याज मिर्च दाल या सब्जी
देती पेट को आधार |
पूरे दिन की कठिन मेहनत
उससे मिलते चंद सिक्के
और संतुष्टि
ले जाती गहरी नींद की बाहों में |
वे हैं शायद बहुत सुखी
समस्त व्याधियों से दूर
किसी जिम में नहीं जाते
कोई दवा नहीं खाते |
लगते हैं पोस्टर श्रम के महत्व के
या प्राकृतिक चिकित्सा के
मुझे तो लगते सन्देश वाहक
शारीरिक श्रम के महत्त्व के |

आशा






14 टिप्‍पणियां:

  1. आदरणीय आशा माँ
    नमस्कार !
    महनत कश हैं
    धुप में करते काम
    श्रमकण उभरते माथे पर
    फिर भी नहीं करते आराम |
    एक सशक्त रचना ! बधाई एवं शुभकामनायें !

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  2. श्रमिक का सुन्दर चित्र खींचा है आपने!
    --
    श्रमकण मोती से सजे, किन्तु काम से काम।
    मेहनतकश को धूप में, मिल जाता आराम।।
    --

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  3. आज की जीवन शैली पर प्रहार करती एवं श्रम के महात्म्य को स्थापित करती एक सारगर्भित रचना ! बहुत बढ़िया ! बधाई एवं शुभकामनायें !

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  4. bahut sundar tareeke se majdoor ki mehnat ko bataya

    ब्लॉग लेखन को एक बर्ष पूर्ण, धन्यवाद देता हूँ समस्त ब्लोगर्स साथियों को ......>>> संजय कुमार

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  5. लगते हैं पोस्टर श्रम के महत्व के
    या प्राकृतिक चिकित्सा के
    मुझे तो लगते सन्देश वाहक
    शारीरिक श्रम के महत्त्व के |

    बहुत सुन्दर और श्रम के महत्त्व को समझाती रचना.
    सलाम.

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  6. श्रम की व्यथा को सुन्दर शब्द दिए...बेहतरीन भावाभिव्यक्ति...शानदार !!

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  7. महनत कश हैं
    धुप में करते काम
    beautiful poem

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  8. मुझे तो लगते सन्देश वाहक
    शारीरिक श्रम के महत्त्व के |
    सीधे सादे शब्दों में सुंदर कविता के लिय धन्यवाद !

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  9. बहुत सशक्त अभिव्यक्ति...श्रम की रोटी का तो स्वाद ही अनोखा होता है..बहुत प्रेरक प्रस्तुति..

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  10. आपलोगों का बहुत बहुत धन्यवाद ब्लॉग पर आकार प्रोत्साहित करने के लिए
    आशा

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  11. सशक्त रचना ..प्रेरक प्रस्तुति.धन्यवाद.

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