बीत गया बचपन
ना कोई चिंता ना कोई झंझट
समय का पंछी कब उड़ा
याद नहीं आता
बढ़ी उम्र दर्पण
देखा
देखे परिवर्तन
मोह जागृत हुआ
अभीलाषा ने सर उठाया
कुछ कर गुजरने की चाह ने
चैन सारा हर लिया
मन चाही कुर्सी जब पाई
मद ने दी दस्तक दरवाजे पर
नशा उसका सर चढ़ बोला
अहंकार का द्वार खुला
चुपके से उसने कदम बढ़ाया
मन में अपना डेरा जमाया
जीवन के तृतीय चरण में
माया आना ना भूली
मन मस्तिष्क पर अधिकार किया
उम्र बढ़ी मुक्ति चाही
सारी दुनियादारी से
पर माया ने हाथ मिलाया
मोह, मद, मत्सर से
सब ने मिल कर ऐसा जकड़ा
छूट न पाया उनसे
अंतिम समय तक |
आशा
अंतिम समय तक इंसान इन बंधनों छुटकारा नही पाता,,,,
जवाब देंहटाएंRECENT POST ,,,,फुहार....: न जाने क्यों,
...बहुत सार्थक प्रस्तुति।
जवाब देंहटाएंgahan abhivyakti ....
जवाब देंहटाएंsahi bat kavi ki lekhani me dam hota hai....
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर सार्थक और गहन अभिव्यक्ति...
जवाब देंहटाएंआशा-तृष्णा मोह मद, तन मन पर अधिकार ।
जवाब देंहटाएंदीदी कहे विचार के, चरण चमकते चार ।
चरण चमकते चार, चपल चंचल है पहला ।
क्रमश: बाढ़े मोह, दिखाए रूप सुनहला ।
चरण चतुर असहाय, भीगता जीव-बताशा ।
मन दौड़े तन नाय, ख़तम हो जाती आशा ।।
एक एक अक्षर सत्य है आपकी रचना का ! माया,मोह,लोभ,मद के विकार इस तरह से मनुष्य को जकड़ लेते हैं कि अंत समय तक इनसे छुटकारा पाना असंभव हो जाता है ! गहन जीवन दर्शन से युक्त बेहतरीन अभिव्यक्ति ! अति सुन्दर !
जवाब देंहटाएंबस इस माया से ही मुक्ति नहीं मिलती किसी भी अवस्था में ...
जवाब देंहटाएंजब ये मिलती है तो इंसान ईश्वर के करीब हो जाता है ...
गहन भाव युक्त बेहतरीन अभिव्यक्ति... सादर
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर भावप्रणव रचना!
जवाब देंहटाएंइसको साझा करने के लिए आभार!
आपकी पोस्ट कल 21/6/2012 के चर्चा मंच पर प्रस्तुत की गई है
जवाब देंहटाएंकृपया पधारें
चर्चा - 917 :चर्चाकार-दिलबाग विर्क
परिवर्तन का दौर अभी भी ज़ारी हैं
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