19 जून, 2012

जकड़ा चारों ने ऐसा




बीत गया बचपन
ना कोई चिंता ना कोई झंझट
समय का पंछी कब उड़ा
 याद नहीं आता
 बढ़ी उम्र दर्पण देखा
देखे  परिवर्तन
मोह जागृत हुआ
अभीलाषा ने सर उठाया
कुछ कर गुजरने की चाह ने
चैन सारा हर लिया
मन चाही कुर्सी जब पाई
मद ने दी दस्तक दरवाजे पर
नशा उसका सर चढ़ बोला
अहंकार का द्वार खुला
चुपके से उसने कदम बढ़ाया
मन में अपना डेरा जमाया
जीवन के तृतीय चरण में
माया आना ना भूली
मन मस्तिष्क पर अधिकार किया
उम्र बढ़ी मुक्ति चाही
सारी दुनियादारी से
पर माया ने हाथ मिलाया
मोह, मद, मत्सर से
सब ने मिल कर ऐसा जकड़ा
छूट न पाया उनसे
अंतिम समय तक |
आशा


12 टिप्‍पणियां:

  1. अंतिम समय तक इंसान इन बंधनों छुटकारा नही पाता,,,,

    RECENT POST ,,,,फुहार....: न जाने क्यों,

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  2. बहुत सुन्दर सार्थक और गहन अभिव्यक्ति...

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  3. आशा-तृष्णा मोह मद, तन मन पर अधिकार ।

    दीदी कहे विचार के, चरण चमकते चार ।

    चरण चमकते चार, चपल चंचल है पहला ।

    क्रमश: बाढ़े मोह, दिखाए रूप सुनहला ।

    चरण चतुर असहाय, भीगता जीव-बताशा ।

    मन दौड़े तन नाय, ख़तम हो जाती आशा ।।

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  4. एक एक अक्षर सत्य है आपकी रचना का ! माया,मोह,लोभ,मद के विकार इस तरह से मनुष्य को जकड़ लेते हैं कि अंत समय तक इनसे छुटकारा पाना असंभव हो जाता है ! गहन जीवन दर्शन से युक्त बेहतरीन अभिव्यक्ति ! अति सुन्दर !

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  5. बस इस माया से ही मुक्ति नहीं मिलती किसी भी अवस्था में ...
    जब ये मिलती है तो इंसान ईश्वर के करीब हो जाता है ...

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  6. गहन भाव युक्त बेहतरीन अभिव्यक्ति... सादर

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  7. बहुत सुन्दर भावप्रणव रचना!
    इसको साझा करने के लिए आभार!

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  8. आपकी पोस्ट कल 21/6/2012 के चर्चा मंच पर प्रस्तुत की गई है
    कृपया पधारें

    चर्चा - 917 :चर्चाकार-दिलबाग विर्क

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  9. परिवर्तन का दौर अभी भी ज़ारी हैं

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