14 सितंबर, 2012

व्यथित



-धधकती आग ढहते मकान
कम्पित होती पृथ्वी  
कर जाती विचलित
मचता हाहाकार
जल मग्न गाँव डूबते धरबार
हिला जाते सारा मनोबल
सत्य असत्य की खींचातानी
लगने लगती बेमानी
करती भ्रमित झझकोरती
क्षणभंगुर जीवन की व्यथा
छल छिद्र में लिप्त खोजता अस्तित्व
हुतात्मा सा जीता इंसान
कई विचार मन में उठते
आसपास जालक बुनते
मन में होती उथलपुथल
हूँ संवेदनशील  जो देखती
उसी में खोजती रह जाती हल
विचारों की श्रंखला रुकती नहीं
कहीं विराम नहीं लगता
हैं सब नश्वर फिर भी
मन विचलित होता जाता
जाने क्यूं व्यथित होता |
आशा 

8 टिप्‍पणियां:

  1. हिन्दीदिवस की हार्दिक शुभकामनाएँ!
    आपका इस प्रविष्टी की चर्चा कल शनिवार (15-09-2012) के चर्चा मंच पर भी होगी!
    सूचनार्थ!

    जवाब देंहटाएं
  2. बहुत सुन्दर..हिन्दीदिवस की हार्दिक शुभकामनाएँ!

    जवाब देंहटाएं
  3. बेहद खुबसूरत रचना, हिंदी दिवस की हार्दिक शुभकामनाएँ.....

    जवाब देंहटाएं
  4. सुन्दर रचना ! बहुत ही खूबसूरत शब्द चित्र खींचा है ! बधाई !

    जवाब देंहटाएं
  5. फिर भी मन विचलित और व्योमोहित होता है !
    यही तो कृतिका की कृत्या है!
    चिंतन को प्रेरित करती रचना !
    http://dhirendrakasthana.blogspot.in/

    जवाब देंहटाएं

Your reply here: