25 नवंबर, 2013

खुद का कुछ भी नहीं




चला जा रहा सोच में डूबा
भीड़ से अलग हट कर
एक बूथ कई प्रत्याशी
नगण्य वोटिंग करवाने वाले
कई वोट डालने वाले
एक बिचारी छोटी सी
इलेक्ट्रोनिक वोटिग मशीन
कैसे चुनाव संपन्न होगा
बिना भेदभाव के |
अजब प्रजातंत्र है
कोई  भी स्वतंत्र नहीं यहाँ
प्रत्याशी से जब बात हुई
बड़ा दुखी था किसको बताए
अपनी व्यथा कथा
कितने पापड बेले थे
एक टिकिट पाने को
सभी दाव  पर लगा हुआ था
सफलता का  सहरा बांधने को |
मतदाता का सोच
ले चला गाँव की ओर
वह था नितांत अनिभिग्य
है कौन प्रत्याशी
किसने क्या क्या कार्य किये
बस चिन्ह  की पहचान थी
अपना अभिमत देने को
ऐसे भी थे लोग जो बोले
कई जीते कोई हारे
 क्या फर्क पड़ता है
हम तो इतना जानते हैं
जहां थे वहीं रहेंगे |
सब ऐसे बंधन में बंधे हैं
स्वतंत्र सोच भी उनका नहीं
वह भी उधार का है
खुद का कुछ भी नहीं |

7 टिप्‍पणियां:

  1. कोउ नृप होय हमें का हानी-
    सुन्दर रचना -
    आभार आदरेया

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  2. हम तो इतना जानते हैं
    जहां थे वहीं रहेंगे |
    सब ऐसे बंधन में बंधे हैं
    स्वतंत्र सोच भी उनका नहीं
    वह भी उधार का है
    खुद का कुछ भी नहीं-------

    वाह!!! बहुत सुंदर और सार्थक सोच कि प्रभावशाली रचना
    उत्कृष्ट प्रस्तुति
    सादर

    आग्रह है--
    आशाओं की डिभरी ----------

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  3. बहुत बढ़िया ! सच में मतदान के समय वे किसे वोट दे रहे हैं यह कितने मतदाता जानते हैं ! ना ही किसी प्रत्याशी की योग्यता को वे पहचानते हैं ! बस केवल चुनाव चिन्ह को ही जानते हैं ! तभी तो देश के यह हाल हैं ! शानदार रचना !

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  4. सही है ,यहाँ खुद का कुछ भी नहीं है |
    (नवम्बर 18 से नागपुर प्रवास में था , अत: ब्लॉग पर पहुँच नहीं पाया ! कोशिश करूँगा अब अधिक से अधिक ब्लॉग पर पहुंचूं और काव्य-सुधा का पान करूँ | )
    नई पोस्ट तुम

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  5. बहुत बढ़िया प्रस्तुति , आदरणीय धन्यवाद
    नया प्रकाशन --: तेरा साथ हो, फिरकैसी तनहाई

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  6. कोई भी आये सत्ता में हमें क्या
    हम तो रहेंगे जैसे ते या बद से बदतर।

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