01 सितंबर, 2015

मैं क्या सोचूँ


मैं क्या सोचूँ
देखा सागर का विस्तार
जल है अपार
फिर भी प्यासा रहा
एक घूट कंठ से न उतरी
मैं क्या सोचूँ |
बेचैन मन
सागर उर्मियों सा
प्रहार पर प्रहार
सह न पाता 
बच  नहीं पाता
मैं क्या सोचूँ |
नदी आतुर
सागर मिलन को
स्वअस्तित्व
 बचा न पाई
समाहित हुई
मैं क्या सोचूँ |
मैं अकिंचन
कहाँ जाऊंगा   
 किनारा कभी न पाऊंगा
सोचता रह जाऊंगा
अभी से क्या सोचूँ |
आशा

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