मैं क्या सोचूँ
देखा सागर का
विस्तार
जल है अपार
फिर भी प्यासा
रहा
एक घूट कंठ से न
उतरी
मैं क्या सोचूँ |
बेचैन मन
सागर उर्मियों सा
प्रहार पर प्रहार
सह न पाता
बच नहीं पाता
मैं क्या सोचूँ |
नदी आतुर
सागर मिलन को
स्वअस्तित्व
बचा
न पाई
समाहित हुई
मैं क्या सोचूँ |
मैं अकिंचन
कहाँ जाऊंगा
किनारा
कभी न पाऊंगा
सोचता रह जाऊंगा
अभी से क्या
सोचूँ |
आशा
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