06 अक्टूबर, 2016

समय रेत सा


काल चक्र
चलता जाता
कभी न थकता
कभी न रुकता
हाथों से दूर
होता जाता
उसे पकड़
कर रखना
असंभव सा
प्रतीत होता
वह लगता
उस रेत सा
जिसे कैद किया
मुठ्ठी में
सोचा अब
कहाँ जाएगी
पर वह
टिक नहीं पाई
धीरे धीरे
खिरने लगी
मुठ्ठी खाली हो गई
भ्रम मन में ना रहा
समय को पकड़ना
नहीं सरल
वह तो रेत सा
फिसलता है
टिका नहीं रहता |
आशा

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