21 दिसंबर, 2009

घर

यह घर है या पागलखाना ,
यहाँ रहता है हर कोई बेगाना ,
निराली सब की दुनिया ,
अलग-अलग दिमाग ,
किसे कहूँ अपना ,
जीना हुआ मुहाल |
केवल बातों का अम्बार ,
हर पल बहस बनी बबाल ,
किसे दूँ सरंजाम ,
यहाँ की हर बात निराली है
अनोखा है व्यवहार |
हर एक हँसता है ,
पर अंतस खोखला है ,
हर शब्द सहमा है ,
पर अंतस भभकता है ,
किसे किस की तलाश ,
किस नतीजे का इंतजार !
रिक्त जीवन की मीमांसा का यह कैसा अधिकार !

आशा

4 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत गूढ़ भाव समेटे हुए है आपकी रचना । वास्तव में जब अंतर इतना उद्विग्न हो तो किसी भी तरह का वाद विवाद मन को नहीं सोहता । बहुत ही यथार्थपरक रचना है । बधाई ।

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  2. आज के युग की सबसे बड़ी विडम्बना ! यहाँ हर व्यक्ति अपने असली चहरे पर नकली मुखौटे लगाए घूमता है ! जीवन में मिलने वाली असफलताओं और हताशाओं का खामियाजा घर वालों को भुगतना पडता है ! एक यथार्थवादी सार्थक रचना !

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