16 मई, 2010

सोच एक शाम की

शाम को झील के किनारे ,
बेंच पर बैठना अच्छा लगता है ,
हरियाली पास से देखना ,
सपना सा लगता है ,
झिलमिल करते बिजली के खम्भे ,
उनकी पानी में छाया ,
पानी में छोटी-छोटी कश्ती ,
दृश्य मनमोहक लगता है |
धीमी गति की लहरों में ,
अँधेरी रात के पहलू में ,
पानी में पैर डाले रखना ,
जब मन चाहे छप-छप करना ,
जल से नाता अपना रखना ,
मुझको बहुत प्यारा लगता है |
दूर एक छोटा सा मंदिर ,
मन्दिर में एक सुन्दर मूरत ,
रोशनी से भरा हुआ परिसर ,
भक्तों की भीड़ अपार जहाँ पर ,
मधुर ध्वनि घंटों की सुनकर ,
वहाँ पहुँचने का मन करता है |
अनिश्चय की दुविधा मिट जाती है ,
मन अभिमंत्रित हो जाता है ,
जल्दी से वहाँ पहुँच पाऊँ ,
प्रभु चरणों में शीश नवाऊँ ,
भगवत भजन में चित्त लगाऊँ ,
सारी चिंता बिसराऊँ ,
संसार चक्र से मुक्ति पाऊँ |


आशा

4 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत सुन्दर ...एक स्वप्न सा आ गया,, पढ़ते -पढ़ते आँखों के सामने ...आपकी कविता अपने आप एक अलग ही सौन्दर्य से पूर्ण होती है...बड़े ताजे और हरे-भरे मन से लिखती है आप ....

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  2. बहुत ही प्राणवान कविता है ! एक एक दृश्य साकार हो गया आँखों के सामने ! आपकी रचनायें शब्दचित्र की तरह होती हैं और मंत्रमुग्ध कर देती हैं ! सुन्दर कविता के लिए आपका आभार !

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  3. very touching thinking really feel like a glass on a sky

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