10 जून, 2010

दायरा सोच का


दायरा सोच का कितना विस्तृत 
कितना सीमित 
कोई जान नहीं पाता
उसे पहचान नहीं पाता
सागर सा विस्तार उसका
उठती तरंगों सा उछाल उसका
गहराई भी समुंदर जैसी
अनमोल भावों का संग्रह
सागर की अनमोल निधि सा |
सोच सीमित नहीं होता
उसका कोई दायरा नहीं होता
होता वह हृदय से प्रस्फुटित
मौलिक और अनंत होता
पृथ्वी और आकाश जहाँ मिलते 
क्षितिज वहीं होता है
सोच क्षितिज सा होता है |
कई सोचों का मेल
बहुत दूर ले जाता है
सीमांकित नहीं किया जाता |
सोच सोच होता है
 कोई नियंत्रण नहीं होता
स्वप्न भी तो सोच का परिणाम हैं
वे कभी सही भी होते हैं
कभी कल्पना से भरे हुए
सपनों से भी होते हैं
कुछ सोच ऐसे भी हैं
दिल के दरिया में डूबते उतराते
कभी गहरे पैठ जाते
वे जब भी बाहर आ जाते
किसी रचना में
रचा बसा खुद को पाते
और अमर वे हो जाते |


आशा

11 टिप्‍पणियां:

  1. .प्रस्तुतिकरण के लिए बहुत बहुत धन्यवाद

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  2. sach me soch aur spno me kbhi kbhi samnjsy hota hai .bahut achhi rachna .

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  3. sach kaha aapne ...socho ka sansar bahut vistrit hota hai jise na jameen ki jarurat he na akaash ki...iska to apna ek kshitiz hota hai.

    sunder shabdo me dhali ek shakt rachna.

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  4. wah. wah. wah. Bahut sundar aur sashakt abhivyakti hai aapaki. Bade gambhir bhavon ko bahut sahajata se aapne rachana me iproyaa hai. Ati sundar .

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  5. हौसला बढाने के लिए धन्यवाद |
    आशा

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