समझदार हूँ
अपना अस्तित्व है मेरा
मेरी सोच सबसे जुदा
यह भी कोई खता नहीं
बदलाव समाज में चाहूँ
अपने ढंग से रहना चाहूँ
ना मैं हूँ मोम की गुड़िया
ना ही भेड़ बकरी
हूँ देन आज के युग की
मेरे भी हैं अपने सपने
उनको पूरा करना चाहूँ
ऐरे गैरे चाहे जैसे से
विवाह मैं न कर पाऊँगी
दान दहेज के दानव से
खुद को दूर रखना चाहूँगी
मन चाहा रिश्ता जब होगा
तभी उसे स्वीकार करूँगी |
बड़ा परिवार ढेर से बंधन
हर समय दबाने की चाहत
बात-बात पर रोका टोकी
यह मुझे स्वीकार न होगी
मन को सब से दूर करेगी
सास ननद के ताने सुनना
घुटन भरे माहौल में रहना
हर पल मर-मर कर जीना
है मेरी फितरत नहीं
यह सब मैं सह न सकूँगी
सहज भाव से जी न सकूँगी
ठेस यदि मन को पहुँची
सब के साथ रह न सकूँगी
पहले भी अकेले रही
अब भी मैं स्वतंत्र रहूँगी |
यदि मेरा पढ़ना लिखना
उनको नहीं सुहाता है
पर मेरा है जीवन वही
उससे गहरा नाता है
ऐसे विचार रखने वालों से
ताल मेल न हो पायेगा
उन्नति मार्ग अवरुद्ध होगा
जीवन नर्क हो जायेगा
हूँ आज की नारी
अपनी अस्मिता मिटने न दूँगी
जाग्रत हूँ जाग्रत ही रहूँगी |
आशा
अपनी अस्मिता मिटने न दूंगी ,
जवाब देंहटाएंअस्मिता मिटनी भी नहीं चाहिये. यही तो पहचान है
सुन्दर रचना
बहुत बढ़िया ! बहुत ही सार्थक सन्देश देती एक प्रेरक रचना ! अपनी अस्मिता को मिटने ना देने का यह संकल्प जिस दिन नारी निभा ले जायेगी वह अबला न होकर सबला बन जायेगी ! सशक्त प्रस्तुति के लिए बहुत बहुत आभार !
जवाब देंहटाएंbadi hi prerak rachna
जवाब देंहटाएं"मै आज की नारी हूं ,
जवाब देंहटाएंअपनी अस्मिता मिटने न दूंगी ,
जाग्रत हूं जाग्रत ही रहूंगी"
bahut khoob....
kunwar ji,
नयी चेतना जगाती हुई सुन्दर रचना
जवाब देंहटाएंये तो बहुत खूबसूरत है :)
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