20 जून, 2010

क्या तुम मेरी बैसाखी बनोगी

भावुकता से भरा हुआ मैं ,
अपनी सुधबुध खो बैठा ,
आगा पीछा कुछ न देखा ,
जीवन संग्राम में कूद पड़ा ,
मेरे आहत मन की पीड़ा की ,
क्या तुम गवाह बन पाओगी ,
मेरी उखड़ी साँसों का ,
कैसे हिसाब रख पाओगी |
जीवन का सफर काँटों से भरा है ,
यह मैं अब जान पाया ,
समस्याओं से जब जूझा ,
तभी उन्हें पहचान पाया |
कठिन डगर पर चलते-चलते ,
कई बार गिरा, गिर कर सम्हला ,
जब से तुम्हारा साथ मिला ,
मैं बहुत कुछ सोच पाया |
जब कभी मैं याद करूँगा ,
क्या तुम मेरी बैसाखी बनोगी ,
ऊँची नीची पगडंडी पर ,
क्या तुम मेरे साथ चलोगी ?


आशा

6 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत सुन्दर रचना!! मन को छूती हुई.

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  2. बहुत ही मार्मिक कविता...
    मन को छू लेने वाली कविता लिखी है आपने। बधाई।

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  3. जब कभी मैं याद करूँगा ,
    क्या तुम मेरी बैसाखी बनोगी ......
    मन को छूती.... सुन्दर रचना...

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  4. वक्त गुज़र जाता है ..बस यादें ही रह जाती हैं...सुन्दर प्रस्तुति

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  5. अत्यंत सुन्दर प्रस्तुति ! विश्वास की आस में किया गया मर्मस्पर्शी निवेदन बहुत अच्छा लगा ! आभार !

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