22 अगस्त, 2010

जब रात होती है

जब रात होती है ,
नींद अपने बाहों में लेना चाहती है ,
तभी एक अनजानी शक्ति ,
अपनी ओर खिचती है ,
आत्म चिंतन के लिए बाध्य करती है ,
दिन भर जो कुछ होता है ,
चल चित्र की तरह आता है ,
आँखों के समक्ष ,
दिन भर क्या किया ?
विचार करती हूं ,
कभी विचारों में ठहराव भी आता है ,
गंभीर चिंतन और मनन
मन नियंत्रित कर पाता है ,
जो उचित होता है ,
कुछ खुशियाँ दे जाता है ,
पर जब त्रुति कोई होती है ,
पश्चाताप होता है ,
कैसे उसे सुधार पाऊं ,
बारम्बार बिचारती हूं ,
जाने कब आँख लग जाती है ,
कब सुबह हो जाती है ,
यह भी पता नहीं चलता ,
कभी अहम बीच में आता है ,
क्षमा याचना मुश्किल होती है ,
कहाँ गलत हूं जानती हूं ,
फिर भी स्वीकर नहीं करती ,
सोचती अवश्य हूं ,
भूल तुरंत सुधार लूं ,
एक निश्प्रह व्यक्ति की तरह ,
जब सोच पाउंगी ,
तभी अपने अंदर झांक पाउंगी ,
है यह कठिन परीक्षा की घड़ी,
फिर भी आशा रखती हूं ,
आत्म नियंत्रण कैसे हो ,
इसका पूरा ध्यान रखूंगी |
आशा

4 टिप्‍पणियां:

  1. घोर चिंतन मनन के उपरान्त ही ऐसी रचना का प्रस्फुटन होता है.आप सफल हैं.

    बहुत ही सुन्दर ! प्रभावी रचना !

    माओवादी ममता पर तीखा बखान ज़रूर पढ़ें:
    http://hamzabaan.blogspot.com/2010/08/blog-post_21.html

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  2. गंभीर चिंतन।

    *** राष्ट्र की एकता को यदि बनाकर रखा जा सकता है तो उसका माध्यम हिन्दी ही हो सकती है।

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  3. कहाँ गलत हूं जानती हूं ,
    फिर भी स्वीकर नहीं करती
    और फिर यह स्वीकारोक्ति आसान भी तो नही है
    बहुत सुन्दर रचना

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  4. आत्म चिंतन के लिये प्रेरित करती एक सार्थक रचना ! सब इसी तरह अपने व्यवहार का आकलन कर लें तो कभी मन मुटाव के अवसर ही पैदा ना हों ! सार्थक और सारगर्भित प्रस्तुति के लिये बधाई !

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