29 सितंबर, 2010

दीवाने

यहाँ आते हैं बैठते हैं
करते बातें आपस में
हैं मित्र बहुत गहरे
अनुभव बांटते हैं
हैं तो सब कलाकार
पर रहते अपनी धुन में
कला में खोए रहते
कहते हें कुछ न कुछ
कभी बात पूरी होती है
कभी अधूरी रह जाती
वह है एक शिल्पकार
कुछ कहता है
रुक जाता है
लगता है
छेनी हतोड़ीं चला रहा
कोई मूरत बना रहा
मंद मंद मुस्काता
मन की बात बताता
यह कला नहीं इतनी आसान
वर्षों लग गए है
पर चाहता हं जो
पा नहीं पाता
बात अभी अधूरी थी
आकाश देख चित्रकार
प्रसन्नवदन मुखरित हुआ
जाने क्या सोचा
तन्मय हो बोल उठा
वाह! प्रकृति भी है क्या
नित नई कल्पना
मुझे व्यस्त कर देती है
हाथोंसे देते ताल
गुनगुनाते संगीतकार
कैसे चुप रह जाते
हलके से मुस्करा कर बोले
लो सुनो नई बंदिश
है नया इसमें कुछ
नर्तक बंदिश में खोने लगा
अभिव्यक्ति नयनों से
और हाथों का संचालन
लगा अभी उठेगा
अपनी भाव भंगिमा से
बंदिश को अजमाएगा
पर ऐसा कुछ नहीं होता
आधी अधूरी हें सब बातें
सब अपने में खोए रहते
कुछ समय ठहर
चल देते हें
कुछ लोग उन्हें
पागल कहते हें
हँसते भी हें
कई लोग समझते
दीवाना उन्हें
पर वे यह नहीं जानते
सब हें कलाकार और निपुण
अपने अपने क्षेत्र मैं |

आशा

7 टिप्‍पणियां:

  1. कविता में कलाकार के मार्फत अपनी संस्‍कृति की ही चिंता है। बहुत अच्छी प्रस्तुति। हार्दिक शुभकामनाएं!
    देसिल बयना-नदी में नदी एक सुरसरी और सब डबरे, करण समस्तीपुरी की लेखनी से, “मनोज” पर, पढिए!

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  2. क्या कमबख्त सोच है, क्या बहाव है, लाजवाब ..... !! लिखते रहिये ...

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  3. बहुत सुन्दर रचना
    बेहतरीन लेखन
    आभार


    प्रतीक्षा में :
    मिलिए ब्लॉग सितारों से

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  4. मूर्तिकार, चित्रकार, संगीतकार और नर्तक के साथ एक और दीवाने साहित्यकार को भी जोड़ लेतीं क्योंकि ह्रदय में सबसे अधिक उथल-पुथल लिये तो वही घूमता है ! सुन्दर प्रस्तुति ! बधाई एवं आभार !

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  5. bhn aashaa ji klaakaaron ki divangi jis andaaz men pesh ki he voh bhut bhut behtrin andaaz men pesh ki gyi he mubaark ho. akhtr khan akela kota rajsthan

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