15 अक्टूबर, 2010

है आखिर ऐसा क्या

प्रकाश सदा सोचता था ,
है आखिर ऐसा क्या ,
आते ही उसके ,
अन्धकार कहीं छिप जाता है ,
हर बार विचार आता था ,
ऐसा क्यूँ करता है ,
कमरे में एक दिन ,
अचानक प्रकाश जा पहुंचा ,
उसे देख अन्धकार ,
पिछले कमरे में दुबक गया ,
प्रकाश चुप ना रह पाया ,
बोला इतना क्यूँ डरते हो ,
मैं जब भी आता हूँ ,
मिलना भी नहीं चाहते ,
चल देते हो |
धीरे से झाँक कर ,
तम सहमा सा बोला ,
मैं तुमसे डरता हूँ ,
ओर तुम्हारी आभा से |
उन लोगों की बातों से ,
जो कहते हें ,
जब तुम होते हो ,
हर और उजाला होता है ,
वे तभी कार्य करपाते हें ,
उन्हें तुम्हारा ही,
इन्तजार रहता है |
मेरे कदम पड़ते ही ,
भूत पिशाच नजर आते हें ,
तांत्रिक जाल बिछाते हें ,
कुछ शमशान जगाते हें ,
कई गुनाह पलते हें ,
बदनाम मुझे कर देते हें ,
साए में मेरे ,
काम भी काले होते हें |
यह सत्य नहीं है भाई ,
तुममे हें गुण इतने ,
क्या कभी विचार किया तुमने ,
यदि छत्र छाया,
तुम्हारी ना होती ,
विश्राम सभी कैसे करते ,
चाँद तारे स्वागतार्थ तुम्हारे ,
सदा तत्पर कैसे रहते |
अन्धकार फिर मुखर हुआ ,
कई रंग छिपे हें तुममे ,
कभी अलग तो कभी साथ ,
दिखता रंगों का चमत्कार ,
मेरा है बस एक रंग ,
वह भी सौंदर्य से कोसों दूर ,
उन्हीं को साथ लिए फिरता हूं ,
हें जो खानअवगुणों की ,
मैं तुमसा कभी ना हो पाउँगा ,
इसी लिए दूर रहता हूं |
प्रकाश चुप ना रह पाया ,बोला
सब सर्वगुण संपन्न हीं होते ,
कई बार मेरे क्रोध की तीव्रता ,
बहुतों को कष्ट देजाती है ,
ना तुम पूर्ण हो और नाही मैं ,
साथ यदि रहना भी चाहें ,
प्रकृति साथ नहीं देती ,
इसी लिए हें हम तुम अलग ,
पर दुश्मन नहीं हें |
आशा

3 टिप्‍पणियां:

  1. मूल्यांकन से बाहर की पोस्ट


    लिखते रहिये

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  2. वाह क्या बात है इस नजरिये से हम सब ने कभी सोचा ही नहीं बहुत अच्छी सोच |

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  3. बहुत बढ़िया रचना ! अँधेरे और उजाले का यह संवाद बहुत ही दिलचस्प और मौलिक लगा ! इतनी अच्छी प्रस्तुति के लिये हार्दिक शुभकामनाएं एवं बधाई !

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