08 जुलाई, 2012

यूं ही नहीं जीता

यूँही नहीं जीता
पीता हूँ ग़म भुलाने के लिए
जीता हूँ पीने के लिए
 दर्देदिल छिपाने के लिए |
मदहोश कदम आगे जाते
वहीँ जा कर रुक जाते
होते अधीर अतृप्त अधर
और अधिक की चाहत रखते
ग़म भुलाने की लालसा
यहाँ तक खींच लाई
 ना हाला हलक तर कर पाई
ना ही साकी बाला आई |
लहराता झूमता झामता
नितांत अकेला
निढाल सा गिरता सम्हलता
पर सहारा किसी का न पाता |
फबतियां कानों में पडतीं
आदतन है शराबी
घर फूँक वहीँ आता
जहाँ अपने जैसे पाता |
सच कोई नहीं जानता
हालेदिल नहीं पहचानता
 छींटाकशी शूल सी चुभती 
फिर भी उसी ओर जाता
आशा 



14 टिप्‍पणियां:

  1. addiction मजबूरी है.
    भावमय सुन्दर रचना.

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  2. बहुत बढ़िया.....
    नए नए रंग आपकी रचना में...

    सादर
    अनु

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  3. मदिरा का सेवन करने वाला अपनी बुरी आदतों का तो गुलाम हो ही जाता है और अपनी तथा अपने घर परिवार की प्रतिष्ठा को दांव पर लगाने से भी नहीं चूकता इसीलिये सबकी आलोचना का शिकार होता है ! एक अच्छी शिक्षाप्रद रचना !

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  4. क्या बात है वाह!
    आपकी यह ख़ूबसूरत प्रविष्टि कल दिनांक 09-07-2012 को सोमवारीय चर्चामंच-935 पर लिंक की जा रही है। सादर सूचनार्थ

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  5. संवेदनशील रचना अभिवयक्ति.....

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  6. पर ये जिंदगी जीने के लिए कोई सही राह नहीं हैं .....सादर

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