खतरा सर पर मंडराया
दिन में स्वप्न नजर आया
किरच किरच हो बिखरा
वजूद उसका शीशे सा
न जाने कब दरका
अक्स उसका आईने
सा
अहसास न हुआ
टुकड़े कब हुए
यहाँ वहाँ बिखरे
दर्द नहीं जाना
स्वप्न में खोया रहा
स्वप्न में खोया रहा
जब हुई चुभन गहरे तक
दूभर हुआ चलना
रक्त रंजित फर्श पर
तब भी नादाँ
पहचान नहीं पाया
पहचान नहीं पाया
वह थी साजिश किसी की
दिल को दुखाने की
उसको फंसाने की |
सुन्दर सृजन!
जवाब देंहटाएंगजब साजिस |
जवाब देंहटाएंशुभकामनायें-
लोग अपने स्वार्थ के लिए अक्सर दूसरो
जवाब देंहटाएंका दिल दुखते है.. यथार्थ कहती रचना..
बहुत सुन्दर सृजन!...
जवाब देंहटाएंरक्त रंजित फर्श पर ..
जवाब देंहटाएंbadhiya..
यथार्थ कहती सुंदर रचना..
जवाब देंहटाएंrecent post: कैसा,यह गणतंत्र हमारा,
बहुत सुन्दर और सटीक रचना...
जवाब देंहटाएंकभी-कभी कौन मुखौटा चढ़ाये वार कर जाता है हम नहीं जान पाते ! सतर्क रहने को प्रेरित करती सुन्दर अभिव्यक्ति !
जवाब देंहटाएंसुन्दर
जवाब देंहटाएंबहुत ही अच्छी कविता |आभार सहित |
जवाब देंहटाएंवाह ...उम्दा
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