तरह तरह के फूल खिले
लोक लुभावन वादों के
बनावटी इरादों के
झरझर झरे टप टप टपके
बिखरे देश के कौने कौने में
पर एक भी न छू पाया
परमात्मा के चरणों को
रहे दूर क्यूं कि
थे वे कागज़ के फूल
सत्यता उनमें ज़रा भी न थी
केवल वादे थे नेक इरादे न थे
आम आदमी ठगा गया
जालक में फसता गया
उन दिखावटी वादों के
हाथ उसके कुछ भी न आया
अनैतिक इरादों की
चुभन के अलावा
हारा सा ठगा सा
हो हताश देखता रह गया
भविष्य की तस्वीर को |
आशा
खुबसूरत अभिवयक्ति.....
जवाब देंहटाएंबहुत ही सुन्दर और सार्थक प्रस्तुती,आभार।
जवाब देंहटाएंसुन्दर प्रस्तुति।। आभार।।
जवाब देंहटाएंनये लेख : जन्म दिवस : किशोर कुमार
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बहुत खुबसूरत अभिव्यक्ति.....
जवाब देंहटाएंबेहतरीन रचना.
जवाब देंहटाएंरामराम.
सुन्दर और बेहतरीन रचना...
जवाब देंहटाएं:-)
हर दिन यही निराशा प्रबल है !
जवाब देंहटाएंयही तो विडम्बना है कि इन नकली, बनावटी एवँ दिखावटी फूलों ने ही असली फूलों की महत्ता कम कर दी है ! जिस दिन लोग असली और नकली का फर्क करना सीख जायेंगे अपनी जंग जीत जायेंगे ! सुंदर प्रस्तुति !
जवाब देंहटाएंवाह ...सही कहा आपने
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रस्तुति को शुभारंभ : हिंदी ब्लॉगजगत की सर्वश्रेष्ठ प्रस्तुतियाँ ( 1 अगस्त से 5 अगस्त, 2013 तक) में शामिल किया गया है। सादर …. आभार।।
जवाब देंहटाएंकृपया "ब्लॉग - चिठ्ठा" के फेसबुक पेज को भी लाइक करें :- ब्लॉग - चिठ्ठा
लाजवाब अभिव्यक्ति...बहुत बहुत बधाई...
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