रात भर चिराग जला
एक पल भी न सोया
फिर भी तरसा
एक प्यार भरी निगाह को
जो सुकून दे जाती
उसकी खुशी में शामिल होती |
वह तो संतुष्टि पा जाता
किंचित स्नेह यदि पाता
दुगुने उत्साह से टिमटिमाता
उसी की याद में पूरी सहर
जाने कब कट जाती
कब सुबह होती जान न पाता |
पर ऐसा कब हुआ
मन चाहा कभी न मिला
सारी शब गुजरने लगी
शलभों के साथ में |
आशा
बहुत सुन्दर प्रस्तुति...!
जवाब देंहटाएं--
आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा आज शुक्रवार (28-02-2014) को "शिवरात्रि दोहावली" (चर्चा अंक : 1537) में "अद्यतन लिंक" पर भी है!
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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महाशिवरात्रि की हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
सूचना हेतु धन्यवाद सर |
हटाएंबहुत ही सुंदर प्रस्तुति आशा जी ।
जवाब देंहटाएंअत्यंत प्रभावशाली सुन्दर पंक्तिया सुन्दरता से रची हुई ...
जवाब देंहटाएंdiya ko bhi prerna chahiye tel ke rup men .....sundar bhav !
जवाब देंहटाएंNew post तुम कौन हो ?
new post उम्मीदवार का चयन
कल 01/03/2014 को आपकी पोस्ट का लिंक होगा http://nayi-purani-halchal.blogspot.in पर
जवाब देंहटाएंधन्यवाद !
प्रभावी बहुत सुंदर रचना...!
जवाब देंहटाएंRECENT POST - फागुन की शाम.
चिराग की व्यथा कह सुनाती भावपूर्ण प्रस्तुति ! बहुत सुंदर !
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