27 जून, 2014

मंजूषा यादों की








यादों की मंजूषा
है सुरक्षित ऊंचाई पर
सोचती हूँ
कब वहाँ पहुंचूं|
कद मेरा छोटा सा
मंद दृष्टि क्षीण काया 
ज़रा  ने घेरा 
फिर भी होता नहीं सबेरा |
यादों पर काली छाया
वहाँ जाने नहीं देती
पंखी  सा मन छटपटाता
वहीं पहुँचना चाहता|
व्यस्तता ओढ़े हुए हूँ
फिर भी मन बहकता
उसी ऊंचाई पर पहुँच
यादों में खोना चाहता|
बीते दिन लौट नहीं पाते
यादों में बसे रहते
जब भी एकांत मिलता
 मंजूषा का पट खुलता|
अतीत मेरे समक्ष होता
उन लम्हों की मिठास
मैं भूल नहीं पाती
उनमें ही समाती जाती |
आशा 

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