06 जून, 2014

व्यथा तुम्हारी





 















-अनजाने में कब
तुम्हारे पंख काटे गए
तुम अनभिज्ञ रहीं 
सोचने  का समय न था |
जब उड़ने की इच्छा हुई
पिंजरा छोडना चाहा
परों के अभाव में
चाह उड़ान भरने की
 तिरोहित हो गयी |
सपोले पाले घर में ही
जाने कब नाग हो गए
सारी खुशियाँ छीन ले गए
उन से मुक्त हो नहीं सकतीं
यही घुटन अंतस की
कभी पनपने न देगी
समूचा तुम्हें निगल जायेगी
आस अधूरी रह जायेगी
जब तक बैरी पहचानोगी
बहुत देर हो जाएगी
बाहर सब से जूझ सकती हो
घर  में पनपा बैरी 
तुम्हारी खुशी
देख नहीं सकता
उसे  कैसे जानोगी |

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