परकटा पक्षी अकेला
सोच रहा मन ही मन में
खुलने लगी ग्रंथियां मन की
उसके सूने से जीवन की |
एक समय ऐसा था जब
पंखों पर रश्क होता था
वह विचरण करता व्योम में
ऊँचाई आसमा की छूनें |
साथियों के संग हो अनंग
मधुर गीत गाता रहता था
आकर्षक सब को लगता
जब रंगीन पंख फैलाता था |
मीठे फल खाता वृक्षों के
दाना चुगता यहाँ वहां
सरोवर में खोजता जल
प्रकृति के सान्निध्य में |
एक बहेलिया घूम रहा था
शिकार की तलाश में
शिकार की तलाश में
वह जाल में ऐसा फंसा
निकल न सका बेचा गया|
निकल न सका बेचा गया|
थे बहुत निर्दयी लोग
पहले पंख काट दिए
जिन पर रश्क उसे रहता था
फिर बंद किया एक पिंजरे में |
छूट गए संगी साथी
प्रकृति का सान्निध्य गया
गुहार लगाई किसी ने न सुनी
बंदी हो कर रह गया |
खुद का कुछ भी न रहा
खुद का कुछ भी न रहा
अपनी भाषा भूलने लगा
अब जो भी सिखाया जाता है
वही वह दोहराता है |
पहले पलायन पिंजरे से
करने का मन होता था
बिछड़ों से पुनः मिलन का
पर अब नहीं |
ना शक्ति रही बाजुओं में
ना ही पहले सी ललक
रह गया है भय मन में
यदि बाहर निकला
दुश्मन का निवाला होगा
बिना बात मारा जाएगा |
वह समझ गया है
है यही नियति उसकी
है वह प्रदर्शन की वस्तु
पिंजरा उसका वास |
ना तो सुन्दरता पहले सी
ना ही इच्छा प्रकृति में बापसी की
नियति के हाथों की
कठपुतली हो कर रह गया है |
आशा
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