08 जून, 2015

परकटा पक्षी

 
परकटा पक्षी अकेला 
सोच रहा मन ही मन में 
खुलने लगी  ग्रंथियां मन की
उसके सूने से जीवन की |
एक समय ऐसा था जब
 पंखों पर रश्क होता था
 वह विचरण करता व्योम में 
ऊँचाई आसमा की छूनें  |
साथियों के संग हो अनंग
मधुर गीत गाता रहता था 
आकर्षक सब को लगता
जब  रंगीन पंख फैलाता था |
मीठे फल खाता वृक्षों के
 दाना चुगता  यहाँ वहां
 सरोवर में  खोजता जल
प्रकृति के सान्निध्य में  |
एक बहेलिया घूम रहा था
 शिकार की तलाश  में 
वह जाल में ऐसा  फंसा
 निकल न सका बेचा गया|
थे बहुत निर्दयी लोग 
पहले पंख   काट दिए 
जिन पर रश्क उसे रहता था
फिर बंद किया एक पिंजरे में |
छूट गए संगी साथी 
प्रकृति का सान्निध्य गया
गुहार लगाई किसी ने न सुनी
बंदी हो कर रह गया |
खुद का कुछ भी न रहा
अपनी भाषा  भूलने लगा 
अब  जो भी सिखाया जाता है 
वही वह दोहराता है |
पहले पलायन पिंजरे से 
करने का मन होता था 
बिछड़ों से पुनः मिलन का 
  पर अब नहीं |
ना शक्ति रही बाजुओं में
ना ही पहले सी ललक 
रह गया है  भय मन में 
यदि बाहर निकला 
 दुश्मन का निवाला होगा 
बिना बात मारा जाएगा |
वह समझ गया है 
है यही नियति उसकी 
है वह प्रदर्शन की वस्तु
पिंजरा उसका वास  |
ना तो  सुन्दरता पहले सी
ना ही इच्छा प्रकृति में बापसी की 
नियति के हाथों की 
कठपुतली हो कर रह गया है |
आशा










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