एक अफसाना सुनाया आपने
गहराई तक पैठ गया मन में
जब पास बुलाया आपने
थमता सा पाया उस पल को
कसक शब्दों की आपके
वर्षों तक बेचैन करती रही
जब भी भुलाना चाहा उसे
तीव्रता उसकी बढ़ती गई
जो दीप जलाया था मन मंदिर में
झोंका हवा का सह न सका
तीव्रता बाती की बढ़ी
लौ कपकपाई और बुझ गई
प्रतिक्रया अफसाने की
आखिर किससे सांझा करती
आखिर किससे सांझा करती
आप से कुछ कह न सकी
मन की मन में रह गई |
आशा
मन की मन में रह गई |
आशा
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें
Your reply here: