लगता है मुझे मनमोहक
घंटों सागर तट पर बैठना
अंतहीन सागर को निहारना
तरंगों के संग बह जाना |
उत्तंग तरंगें नीली नीली
उठती गिरतीं आगे बढ़तीं
आपस में टकरातीं
चाहे जब विलीन हो जातीं |
प्रातः झलक बाल अरुण की
रश्मियों के साथ दीखती
कभी अरुण को बाहों में भरतीं
चाहे जब उर्मियों से खेलतीं |
उनका बादलों में छिपना निकलना
छोटी बड़ी लहरों से उलझना
दृश्य मनोहारी होता
मन तरंगित कर जाता |
स्वर्णिम दृश्य ऐसा होता
समूचा मुझे सराबोर करता
मन उर्मियों सा होता तरंगित
भावविभोर हो बहना चाहता |
अब उठने का मन न होता
ठंडी रेत पर बैठ वहीं
दृश्य मन में उतारती
स्वप्नों का किला बनाती|
तभी एक लहर अचानक
मुझे भिगो कर चली गई
झाड़ी रेत भीगे तन से
ठोस धरातल पर पैर टिके|
पीछे लौटी जाने को घर
सागर
तट का मोह छोड़
बाल अरुण सुनहरी धूप
उर्मियों की लुका
छिपी
और स्वप्नों से मुंह मोड़ कर |
आशा
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें
Your reply here: