दिल की दीवार पर
कुछ आज लिखा देखा
नहीं किसी जैसा
पर जाने क्यूं आकृष्ट करता
बहुत सोचा याद किया
फिर मन ने स्वीकार किया
याद आगई वह इबारत
जब कलम भी न पकड़ी थी
मम्मीं की कलम से रोज
उनकी ही कॉपी में
लड्डू बनाया करती थी
उसपर भी रोजाना
तारीफ पाया करती थी
उससे जो प्रसन्नता होती
आज तक न मिली
तब कलम नहीं छूटती थी
अब कोई वेरी गुड
देने वाला नहीं मिला |
आशा
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