दूर तक फैला सन्नाटा
सड़क पर कोई नहीं आता नजर
यह है आतंक का प्रभाव
या मन में दहशत का प्रतिफल
सहमें हुए शब्द मौन हुए
बिखरे हैं मुंह में पर निशब्द
ओठों तक आ नहीं सकते
दहशतगर्दी इस हद तक पसरी
श्वास लेना भी हुआ दूभर
रीते नयन तलाश रहे
बिछुड़े हुए अपनों को
आसपास घरों में भी
है खामोशी का आलम
जहां रहती थी सदा
चहलपहल बचपन की
आम आदमी सहमा हुआ है
पर चाहत है अमन चैन की
खामोशी में घुटन होती है
आखिर कब तक इसे सहन करेगा
सामान्य जन जीवन होगा
आपस में भाई चारा पनपेगा
खून खराबा समाप्त होगा |
आशा
सार्थक सृजन ! बहुत सुंदर !
जवाब देंहटाएंधन्यवाद साधना टिप्पणी के लिए |
जवाब देंहटाएंआपकी लिखी रचना "पाँच लिंकों का आनन्द" के हम-क़दम के 88 वें अंक में सोमवार 16 सितंबर 2019 को साझा की गयी है......... पाँच लिंकों का आनन्द पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
जवाब देंहटाएंइस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.
जवाब देंहटाएंसूचना हेतु आभार सर |
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