मेरे अंतर्मन से उठते भाव
हुए बेचैन शब्दों में बंधने को
मीठे मधुर बोलों से बंधे हैं
कविता की पतंग की डोर बने हैं |
रस रंग में सराबोर है
उड़ने को है तैयार कविता
कोई उसे यदि दे छुट्टी
आसमान छूने की ललक रखती है |
वह सबसे टक्कर ले सकती है
हार नहीं स्वीकार उसे
डोर उसकी है इतनी सक्षम
काटती है अन्य पतंगों को |
पेच पर पेच लड़ाती है
फिर भी कटने से बची रहती
है आखिर कविता ही
कभी हार भी जाती है |
डोर से अलग हो व्योम में
स्वतंत्र विचरण करती है
पर फिर से दूने जोश से
मैदान में उतरती है |
इस बार वह रस रंग
छंद व अलंकारों की पुच्छ्लों से सजी है
भाषा का लालित्य छलकता है
उसके अंग अंग से |
कविता की पतंग
जब ऊंचाई छू लेती है
सभी मन को थाम लेते हैं
वाह वाह करते नहीं थकते |
मन के भावों को मिलते विश्राम के दो पल
फिर नई चेतना अंगडाई लेती है
स्वप्नों की दुनिया से जागते ही
नया सोच उभर कर आता है |
वह शब्दों की डोरी से बंधता जाता है
एक नई कविता को आसमान छूने के लिए
उड़ने के लिए पंख मिलते हैं
यही सब के मन को भाता है|
आशा
आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल रविवार (13-12-2020) को "मैंने प्यार किया है" (चर्चा अंक- 3914) पर भी होगी।
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
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सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
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सुप्रभात
हटाएंमेरी रचना की सूचना के लिए आभार सहित धन्यवाद सर |
वाह वाह वाह ! बहुत ही सुन्दर कविता ! मज़ा आ गया ! खूब भरी उड़ान कविता की पतंग ने !
जवाब देंहटाएंसुप्रभात
हटाएंटिप्पणी के लिए धन्यवाद साधना |
सुन्दर कविता
जवाब देंहटाएंसुप्रभात
जवाब देंहटाएंमेरी रचना पर टिप्पणी के लिए धन्यवाद ओंकार जी |
सुन्दर रचना ।
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