हार न मानी कभी
कितनी भी कठिनाई आई
डट कर सामना किया
मोर्चे से नहीं भागा |
मन पर पूरा नियंत्रण
जाने कब से रखा है
हर कदम पर सफल रहा हूँ
तिथि तक याद नहीं है अब तो |
कभी भरोसा था अन्यों पर
कंधे पर सर रखा था
मन को सांत्वना देने को
वह भी खोखला निकला |
पर अब पश्च्याताप नहीं
खुद ही इतना हूँ सक्षम
है तुम पर ही विश्वास
तुम्ही तारणहार मेरी नैया के |
तुम्ही हो खिवैया नैया के बीच मझधार में
मेरा बेड़ा पार लगाओ हे कर्तार
मेरी आस्था कभी न डगमगाए
हो बेड़ा पार इस विशाल भवसागर से |
आशा
जी नमस्ते ,
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल सोमवार(२०-०९-२०२१) को
'हिन्दी पखवाड़ा'(चर्चा अंक-४१९३) पर भी होगी।
आप भी सादर आमंत्रित है।
सादर
Thanks for the information of the post anita ji
हटाएंबहुत सुन्दर
जवाब देंहटाएंवाह ! बहुत खूब ! इतना भरोसा तो होना ही चाहिए खुद पर !
जवाब देंहटाएंThanks for the comment
जवाब देंहटाएंसुन्दर रचना
जवाब देंहटाएंसुप्रभात
जवाब देंहटाएंधन्यवाद आलोक जी टिप्पणी के लिए |