आज बड़ी उलझन में हूँ
मैंने तो सोचा था
सारे कार्य पूर्ण कर लिए हैं
जिम्मेदारी मेरी संपन्न हुई है |
शायद यह मेरी भूल रही
एक पुस्तक में पढ़ा था
जब बच्चे बड़े हो जाएं
उन पर जुम्मेंदारी सोंपी जाएं |
वे यदि सक्षम और समर्थ हों
उन की मदद ली जाए
कहाँ मैं गलत थी
अपनों और गैरों में भेद नहीं कर पाए |
कोई आए ठहरे सब को अच्छे लगते हैं
मेंहमान की तरह स्वागत होता है
पर जाने कब विदा होंगे मन को लगता है |
आज कोई प्यार नहीं किसी को
अपनों को गैर समझा जाता
यदि कोई समस्या हो बताया नहीं जाता
हम भी कुछ लगते हैं सोचा नहीं जाता |
मन उलझनों की गुत्थि लिए घूम रहा दुविधा में
मैं सोच में पड़ी हूँ क्या करू
दुविधा की चादर लिए
खुशी से हुई मीलों दूर |
आशा सक्सेना
खूबसूरत अभिव्यक्ति 🙏
जवाब देंहटाएंThanks for the comment
हटाएंबहुत सुंदर सृजन
जवाब देंहटाएंThanks for the comment
जवाब देंहटाएंघर के बड़े बुज़ुर्ग कभी दायित्वों से मुक्त नहीं होते !
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