02 सितंबर, 2014

ओ निराकार






पहुँच न पाया आज तक
बैतरनी कर  पार तुझ तक
प्रयत्न कोई न छोड़ा
आस पर जिया |
           कोई बाधा न आई
             तुझ तक पहुँचने में
              तुझे अपना कहने में
               कल्पना में ही सही |
है यह शास्वत सत्य
किसी ने न देखा न छुआ
केवल तुझे अनुभव किया
अटल विश्वास  जगा |
                   कल्पना की तस्वीर बनाई
                मूर्तियों में उसे उकेरा
                    तेरा अक्स उन्हीं में पाया
                    नत मस्तक किया  |
पा सान्निध्य तेरा वहां
जो अनुभूति हुई
कैसे बयान करू
शब्द नहीं मिलते |
                     अब दृष्टि जहां तक जाती है
                 केवल तुझे ही पाती है
                 जब बंद आँखें करू
                  तुझ में  ही खोया रहूँ |
सहत्र नाम तेरे
प्रतिदिन लिए जाते हैं
तुझ तक पहुँचने को
कई मार्ग चुने जाते हैं |
                 धर्म अनेक गंतव्य एक
                     जिसके मन में जैसा आता
                     उसी रूप में तुझको पाता  
                         कभी धर्म आड़े न आता   |
तू सृष्टि  के कण कण में
तेरा आसन सबके मन में
कर भवसागर से पार
ओ मेरे करतार |
आशा

31 अगस्त, 2014

जाना चाहती हूँ


  
 


:-जाना चाहती हूँ दूर बहुत
इस भव सागर से
सब कार्य पूर्ण हो गए
जो मुझे करने थे |
अब मन नहीं लगता
किसी भी कार्य में
कोई उत्साह नहीं शेष
थके हुए जीवन में |
थोड़ा मोह बाक़ी था
बच्चों के बचपन से
उनका बचपन खो गया
बस्तों के बोझ  तले |
अब ऐसा कोई  नहीं
जिस से सांझा कर पाऊँ
अपने मन की बातें
और बाँट पाऊँ प्यार |
थका हारा शरीर
कहीं जाने नहीं देता
बोझ लगता मुझे
घर से निकलना |
अब धरती पर
बोझ बढ़ा  रही हूँ
अकर्मण्यता की मिसाल
होती जा रही हूँ |
आशा