31 अगस्त, 2018
29 अगस्त, 2018
बैर
सम्भाव सदा रखते
ना की किसी से दोस्ती
नहीं किसी से बैर
अति है सब की बुरी
बहुत मिठास लाती कड़वाहट
आपसी संबंधों में
पड़ जाती दरार दिलों में
जो घटती नहीं
बढ़ती जाती है
बढ़ती जाती है
बट जाती है टुकड़ों में
जिसने की सीमा पार
उसी का टूटा विश्वास
है जरूरी स्वनियंत्रण
समभाव रखने के लिए
सच्ची मित्रता के लिए
मन मारना पड़ता है
उसे बरकरार रखने के लिए
बैर भाव पनपने में तो देर नहीं होती
पर बैर मिटाने में वर्षों लग जाते हैं
तब भी दरार कहीं रह जाती है
मन का दर्पण दरक जाता है
फिर जुड़ नहीं पाता
जीवन में सदा
असंतोष बना रहता है
पर बैर नहीं मिट पाता है
इससे बचने वाले
जीते हैं खुशहाली में |
आशा
23 अगस्त, 2018
झील सी गहरी आँखें
झील सी गहरी नीली आँखें
खोज रहीं खुद को ही
नीलाम्बर में धरा पर
रात में आकाश गंगा में |
उन पर नजर नहीं टिकती
कोई उपमा नहीं मिलती
पर झुकी हुई निगाहें
कई सवाल करतीं |
कितनी बातें अनकही रहतीं
प्रश्न हो कर ही रह जाते
उत्तर नहीं मिलते
अनुत्तरित ही रहते |
यदि कभी संकेत मिलते
आधे अधूरे होते
अर्थ न निकल पाता
कोशिश व्यर्थ होती पढ़ने की |
पर मैं खो जाता
ख्यालों की दुनिया में
मैं क्यूं न डुबकी लगाऊँ
उनकी गहराई में |
पर यह मेरा भ्रम न हो
मेरा श्रम व्यर्थ न हो
मुझे पनाह मिल ही जाएगी
नीली झील सी गहराई में |
आशा
17 अगस्त, 2018
मेरी पहचान
जब मैं छोटी बेटी थी
मनसा था मेरा नाम
बड़ी शरारत करती थी
पर थी मैं घर की शान |
वैसे तो माँ से डरती थी
माँ के आँख दिखाते ही
मैं सहमी-सहमी रहती थी |
मेरी आँखें ही मन का
दर्पण होती थीं
व मन की बातें कहती थीं |
एक दिन की बताऊँ बात
जब मैं गई माँ के साथ
सभी अजनबी चेहरे थे
हिल मिल गई सभी के साथ |
माँ ने पकड़ी मेरी चुटिया
यही मेरी है प्यारी बिटिया
मौसी ने प्यार जता पूछा
"इतने दिन कहाँ रहीं बिटिया? "
तब यही विचार मन में आया
क्या मेरा नाम नही भाया
जो मनसा से हुई आज बिटिया |
बस मेरी बनी यही पहिचान
'माँ की बिटिया' 'माँ की बिटिया'
जब मै थोड़ी बड़ी हुई
पढ़ने की लगन लगी मुझको
मैंने बोला, "मेरे पापा,
मुझको शाला में जाना है !"
शाला में सबकी प्यारी थी
सर की बड़ी दुलारी थी
एक दिन सब पूछ रहे थे
"कक्षा में कौन प्रथम आया
हॉकी में किसका हुआ चयन ?"
शिक्षक ने थामा मेरा हाथ
परिचय करवाया मेरे साथ
कहा, "यही है मेरी बेटी
इसने मेरा नाम बढ़ाया !"
तब बनी मेरी वही पहचान
शिक्षक जी की प्यारी शान
बस मेरी पहचान यही थी
मनसा से बनी गुरु की शान |
जिस दिन पहुँची मैं ससुराल
घर में आया फिर भूचाल
सब के दिल की रानी थी
फिर भी नहीं अनजानी थी
यहाँ मेरी थी क्या पहचान
केवल थी मै घर की जान |
अपनी यहाँ पहचान बनाने को
अपना मन समझाने को
किये अनेक उपाय
पर ना तो कोई काम आया
न बनी पहचान |
मैंं केवल उनकी अपनी ही
उनकी ही पत्नी बनी रही
बस मेरी बनी यही पहचान
श्रीमती हैं घर की शान |
अब मैं भूली अपना नाम
माँ की बिटिया ,गुरु की शान
उनकी अपनी प्यारी पत्नी
अब तो बस इतनी ही है
मेरी अपनी यह पहचान
बनी मेरी अब यही पहचान |
आशा
मनसा था मेरा नाम
बड़ी शरारत करती थी
पर थी मैं घर की शान |
वैसे तो माँ से डरती थी
माँ के आँख दिखाते ही
मैं सहमी-सहमी रहती थी |
मेरी आँखें ही मन का
दर्पण होती थीं
व मन की बातें कहती थीं |
एक दिन की बताऊँ बात
जब मैं गई माँ के साथ
सभी अजनबी चेहरे थे
हिल मिल गई सभी के साथ |
माँ ने पकड़ी मेरी चुटिया
यही मेरी है प्यारी बिटिया
मौसी ने प्यार जता पूछा
"इतने दिन कहाँ रहीं बिटिया? "
तब यही विचार मन में आया
क्या मेरा नाम नही भाया
जो मनसा से हुई आज बिटिया |
बस मेरी बनी यही पहिचान
'माँ की बिटिया' 'माँ की बिटिया'
जब मै थोड़ी बड़ी हुई
पढ़ने की लगन लगी मुझको
मैंने बोला, "मेरे पापा,
मुझको शाला में जाना है !"
शाला में सबकी प्यारी थी
सर की बड़ी दुलारी थी
एक दिन सब पूछ रहे थे
"कक्षा में कौन प्रथम आया
हॉकी में किसका हुआ चयन ?"
शिक्षक ने थामा मेरा हाथ
परिचय करवाया मेरे साथ
कहा, "यही है मेरी बेटी
इसने मेरा नाम बढ़ाया !"
तब बनी मेरी वही पहचान
शिक्षक जी की प्यारी शान
बस मेरी पहचान यही थी
मनसा से बनी गुरु की शान |
जिस दिन पहुँची मैं ससुराल
घर में आया फिर भूचाल
सब के दिल की रानी थी
फिर भी नहीं अनजानी थी
यहाँ मेरी थी क्या पहचान
केवल थी मै घर की जान |
अपनी यहाँ पहचान बनाने को
अपना मन समझाने को
किये अनेक उपाय
पर ना तो कोई काम आया
न बनी पहचान |
मैंं केवल उनकी अपनी ही
उनकी ही पत्नी बनी रही
बस मेरी बनी यही पहचान
श्रीमती हैं घर की शान |
अब मैं भूली अपना नाम
माँ की बिटिया ,गुरु की शान
उनकी अपनी प्यारी पत्नी
अब तो बस इतनी ही है
मेरी अपनी यह पहचान
बनी मेरी अब यही पहचान |
आशा
16 अगस्त, 2018
अनजाने जाने पहचाने
मेरी परिचितों की
बिसात
अलग से कुछ भी नहीं
है
मैं ही हूँ खुद की
पहिचान
कतरा कतरा जो छू गया
मुझे
वह मेरा अपना हो गया
अहम दूर तक न छू सका
जो भी मुझसे मिला
मुझमें विलीन हो गया
मंथर गति से आती मलय
मिट्टी की सोंधी
खुशबू
बारम्बार करती
आकृष्ट अपनी ओर
उन गलियों में जिनमें
बिताया अपना
कल मैंने
कदम थम जाते वहां
उम्र के अंतिम पड़ाव
पर आते ही
लौट कर आने लगा
बचपन
और बीते कल की यादें
|
आशा
14 अगस्त, 2018
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