08 सितंबर, 2014

विचरण कविता लोक में

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विचरण कविता लोक में
स्वप्न जगत से कम नहीं
हर शब्द प्रभावित करता
निहित भावों की सुगंध से |
दस्तक दिल के द्वार पर
चंचल मन स्पंदित करती
द्रुत गति से ह्रदय धड़कता
वहां प्रवेश करने में |
जब पहला कदम बढाया
सब कुछ नया नया सा था
पैरों में होता  कम्पन
आगे बढ़ने न देता |
राह कठिन पर मन हठी
रुका नहीं बढ़ता गया
बाधाएं सारी पार कर
मार्ग प्रशस्त करता गया |
आज हूँ जिस मोड़ पर
भाव मुखर होते हैं
स्वप्नों को बुन पाती हूँ
शब्दों के जालक में |
आशा

06 सितंबर, 2014

चाय की प्याली में तूफान







झूठ के पैर नहीं होते
सुना था पर भोगा न था
सत्य कभी छिपता नहीं
पढ़ा था पर देखा न था |
बिना बात व्यर्थ की बहस
बातों को तूल देती
मन उद्द्वेलित कर देती
पर सच कुछ और ही होता |
जब तक सत्य उजागर न होता
 विचारों में वह उलझा रहता
चाहे कहीं भी व्यस्त होता
सत्य खोजता रहता  |
किसी  भी कहानी  में
बार बार आते परिवर्तन
सार तक पहुँचने न देते
तब विश्वास दगा देता |
ऐसे किस्से बिना सिर पैर के
 कपोल कल्पित लगते
जब तक निर्णायक क्षण ना आए
समय की बर्बादी लगते |
क्या आवश्यक नहीं
जब तक पूर्ण खोज न हो
मुद्दे चाहे जो हों
सब के सामने न हों |
सारे सबूत जब जुट जाएं
सही सटीक हो बात 
तभी बात खोली जाए
समय का सत्कार हो पाए |
बिना बात बयानबाजी
शोभा नहीं देती
असंतोष को जन्म देती
अपना विश्वास खो देती |
आशा

04 सितंबर, 2014

शिक्षक दिवस पर

शिक्षक दिवस पर सभी गुरुजन को प्रणाम |
आज डा.राधा कृष्णन का जन्म दिन है



शिक्षा मिलती
जन्म से मृत्यु तक
कण कण से |

प्रथम गुरू
हैं तू जननी मेरी
तुझे प्रणाम |

औपचारिक
अनवरत शिक्षा
हो ध्येय मेरा |
आशा
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02 सितंबर, 2014

ओ निराकार






पहुँच न पाया आज तक
बैतरनी कर  पार तुझ तक
प्रयत्न कोई न छोड़ा
आस पर जिया |
           कोई बाधा न आई
             तुझ तक पहुँचने में
              तुझे अपना कहने में
               कल्पना में ही सही |
है यह शास्वत सत्य
किसी ने न देखा न छुआ
केवल तुझे अनुभव किया
अटल विश्वास  जगा |
                   कल्पना की तस्वीर बनाई
                मूर्तियों में उसे उकेरा
                    तेरा अक्स उन्हीं में पाया
                    नत मस्तक किया  |
पा सान्निध्य तेरा वहां
जो अनुभूति हुई
कैसे बयान करू
शब्द नहीं मिलते |
                     अब दृष्टि जहां तक जाती है
                 केवल तुझे ही पाती है
                 जब बंद आँखें करू
                  तुझ में  ही खोया रहूँ |
सहत्र नाम तेरे
प्रतिदिन लिए जाते हैं
तुझ तक पहुँचने को
कई मार्ग चुने जाते हैं |
                 धर्म अनेक गंतव्य एक
                     जिसके मन में जैसा आता
                     उसी रूप में तुझको पाता  
                         कभी धर्म आड़े न आता   |
तू सृष्टि  के कण कण में
तेरा आसन सबके मन में
कर भवसागर से पार
ओ मेरे करतार |
आशा