29 जुलाई, 2012
27 जुलाई, 2012
उपन्यास सम्राट प्रेमचंद
उपन्यास सम्राट श्री
प्रेमचन्द (1880-1936) का असली नाम धनपत राय
श्रीवास्तव था |हिन्दी और उर्दू दौनों ही भाषा पर उनका सामान अधिकार था |अपने लेखन के लिए दौनों ही
भाषाओं का उपयोग किया प्रारम्भ में उर्दू नें लिखा फिर बाद में हिन्दी में
|साहित्य में यथार्थवादी परम्परा की नीव रखी |उन्हें हिन्दी कहानी का पितामह माना
गया है |उस समय की परिस्थितियों का इतना सजीव वर्णन उनकी रचनाओं में है कि आज भी
उनका उतना ही महत्त्व है जो पहले था |३३ वर्ष के रचनात्मक जीवन में वे साहित्य की
ऐसी विरासत छोड़ गए जो गुणात्मक दृष्टि से अमूल्य है |अपने साहित्य में जीवन के
विभिन्न रूपों को बहुत मनोयोग से उकेरा है |उन्हें शत शत नमन |
यह छोटी सी रचना है
:-
जिसने जन्म लिया
उसे तो जाना ही है
लंबा सफर जीवन का
जो पीछे छूट गया
आने वाली पीढ़ी के
लिए
खजाने सा छोड़ जाना है
सशक्त लेखिनी के उदगारों से
गहराई तक रची बसी
कालजई रचनाएँ
हैं महत्त्व पूर्ण
आज भी
बीता कल तो रीत गया
पर वर्तमान में भी
जीवंत उसे कर जाता है |
आशा
25 जुलाई, 2012
आदत सी हो गयी है
कुछ बड़े कुछ छोटे छोटे
समेटे हुए बहुत कुछ
कल आज या भविष्य की
या कल्पना जगत की
कुछ कहते कुछ छिपा जाते
रंगीन या श्वेत श्याम
चित्रों से सजाए जाते
विश्वसनीय दिखाई देते
पर सारे सच भी नहीं होते
होते स्वतंत्र विचारों के पक्षघर
फिर भी प्रभावित
किसी न किसी
से
कुछ उपयोगी कुछ अनुपयोगी
सामिग्री परोसते
सजा कर
विभिन्न कौनों में
तस्वीरें भी लुभातीं
बहुत कुछ कहना चाहतीं
आदत सी हो गयी है
सर्व प्रथम प्रातः
उसे हाथ में थामने की
उससे चिपके रहने की
सरसरी नजर से
उसे टटोलने की
यदि किसी दिन ना मिल पाए
चाय में चीनी भी कम लगती
आदत जो पड़ गयी है
हाथ में कप चाय का ले
सुबह अखबार पढने की |
23 जुलाई, 2012
था उसका कैसा बचपन
जाने कब बचपन बीता
यादें भर शेष रह गईं
थी न कोई चिंता
ना ही जिम्मेदारी
कोई
खेलना खाना और
सो जाना
चुपके से नजर बचा कर
गली के बच्चों में खेलना
पकडे जाने पर घर बुलाया जाना
कभी प्यार से कभी डपट कर
जाने से वहाँ रोका
जाना
तरसी निगाहों से
देखना
उन खेलते बच्चों को
मिट्टी के घर बनाते
सजाते सवारते
कभी तोड़ कर पुनः
बनाते
किसी से कुट्टी किसी से दोस्ती
अधिक समय तक वह भी न रहती
लड़ते झगड़ते दौड़ते
भागते
बैर मन में कोई न
पालते
ना फिक्र खाने की
ना ही चिंता घर की
ना सोच छोटे बड़े का
ना भेद भाव ऊँच नीच
का
सब साथ ही खेलते
साथ साथ रहते
वह बेचारा अकेला
उन बेजान खिलौनों से
ऊपर से अनुशासन झेले
यह करो यह न करो
वह सोच नहीं पाता
मन मसोस कर रह जाता
ललचाई निगाहों से
ताकता
उन गली के बच्चों
को
अकेलापन उसे सालता
था उसका कैसा बचपन |
आशा
20 जुलाई, 2012
ध्येय मेरा
दुर्गम मार्ग से जाना
सकरी बीथिका में
कंटकों से बच पाना
पर एक लक्ष्य एक ध्येय
देता संबल मुझे
तुझ तक पहुँचने का
तुझ में रमें रहने का
मन में व्याप्त आतुरता
खोजती तुझे
दीखता जब पहुँच मार्ग
कोई बंधन, कोई आकर्षण
या हो मोह ममता
सब बोझ से लगते
उन् सब से तोड़ा नाता
श्याम सलौने तुझसे
जब से जोड़ लिया नाता
खुद को भी भूल गया
तुझ में मन खोया ऐसा
तेरी मूरत में डूबा
साक्षात्कार हो तुझसे
है बस यही ध्येय मेरा |
आशा
18 जुलाई, 2012
मैं मनमौजी
अपनी ही दुनिया में
भावनाओं में बहता
कल्पना की उड़ान भरता
उड़ान जितनी ऊंची होती
वन उपवन में जब घूमता
वृक्षों का हमजोली होता
पशु पक्षियों को दुलराता
कहीं साम्य उनमें पाता
जब बयार पुरवाई बहती
जीवन में रंग भर देती
बैठ कर सरोवर के किनारे
जल की ठंडक महसूस कर
किनारे की गीली रेत पर
कई आकृतियाँ उकेरता
रेती से घर बनाना
फूलों से उसे सजाना
मन को आल्हादित करता
नौका में बैठ कर अकेले
उस पार आने जाने में
जल में क्रीड़ा करने में
मन मगन होता जाता
जाने कब चुपके से
कागज़ की नौका बना
जल में प्रवाहित करता
बढती नौका के साथ साथ
दौड लगाना चाहता
रूमाल से मछली पकडने का
आनंद भी कुछ कम नहीं
खुद को रोक नहीं पाता
बचपन में ही खो जाता |
आशा
आशा
16 जुलाई, 2012
प्यासा मन
प्यासा पपीहे का तन मन
घिर आई काली बदरिया
पर वह न आए आज तक
आगमन काली घटाओं का
नन्हीं जल की बूंदों
का
हरना चाहता ताप तन मन का
पर यह हो नहीं पाता
अब है हरियाली ही हरियाली
जहाँ तक नजर डाली
भीगे भीगे से सनोवर
उल्लसित होते सरोवर
फिर भी विरहणी की उदासी
कम होने का नाम न लेती
जब पिया का साथ न होगा
प्यासा मन प्यासा ही रहेगा |
आशा
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