20 सितंबर, 2015

कल्पना


हर अदा तेरी
अधिक समीप लाती
तू ही तू नज़र आती
स्वप्नों में सताती |
जुम्बिश अलकों की
कशिश खंजन नयनों की
छिपा लूं अपने मन में
सहेजूँ ये पल दिल में
सुर्ख लाल अधर तेरे
मुस्कुराते ध्यान खीचते
मीठे बैन उनसे झरते
मन में राह बनाते 
अंतस में पैंठ जाते 
मंथर गति से तेरा चलना
आँचल  का हवा में उड़ना
उसे सम्हालने की कोशिश में
चूड़ियों का खनकना
सुनने को मन करता
चूड़ियों की खनक हाथों में
पायल सजती पैरों में 
हिना की महक
महावरी रंग की झलक
तुझे और समीप लाती
दिल से दिल की राह दीखती
तेरी जुल्फ़ों के साए में
तनिक ठहर जाऊं अगर
तुझसे कुछ न चाहूँ
तेरा हो कर रह जाऊं
सुबह शाम तुझसे हो
रात सजे  तेरे स्वप्नों से
है मेरे लिए तू क्या
यह कैसे तुझे बताऊँ |
आशा

18 सितंबर, 2015

भाव



भाव का अविर्भाव
ऐसे ही नहीं होता
बहुत जतन  करने होते हैं
तभी निखार आता
सर्वप्रथम उसका शोधन
फिर प्रक्षालन परिवर्धन
और अंत में परिमार्जन
इतनी विपदा सहते सहते
मूल भाव तिरोहित होता
परिवर्तन इतने हो जाते
नया ही कुछ प्रगट होता
मनभावन प्रस्तुति होती
पर मूल भाव रह जाता
 किसी कौने में सिमट कर
विश्वास नहीं होता  
जो सोचा न था
 वही लिखा था |
आशा





16 सितंबर, 2015

थे अनजान


पीले पड़े पत्ते के लिए चित्र परिणाम
हुए धुप से बेहाल
पीत  पड़े पत्ते बेचारे
कशमकश में उलझे
अपनी शाखा से बिछुड़े
झड़ने लगे खिरने  लगे
प्रारब्ध से अनजान 
ना ही कोई हमराज 
हुए अनाथ इस जहां में
किसी ने न अपनाया
प्यार किया ना दुलराया
खुद को बहुत अकेला पाया
सोचने का समय न था
वायु वेग के   साथ हुए
अनजान  डगर तक जा पहुंचे
थकने लगे तरसने लगे
 विराम की आकांक्षा  लिए
ढलान पर सम्हल न पाए
फिसल गए  खाई तक पहुंचे
थे चोटिल आहात
स्थिर भी न हो पाए
जाने कब स्वांस रुकी
जीवन का मोह भंग हुआ
आश्चर्य तो तब  हुआ
कौन थे कहाँ से आये
क्या चाहत थी उनकी
कोई निशाँ तक न छोड़ा 
इस दुनिया से नाता तोड़ा |

आशा