मै एकाकी नौका पर सवार
खेलती लहरों के साथ
उत्तंग लहरों का संग
बहुत आकृष्ट करता था
जब अवसर हाथ आया
रोक न पाई खुद को
अकेले ही चल दी
बिना किसी को साथ लिये
तट छूटा तब भय न लगा
पर मध्य में आते ही
बह चली लहरों के संग
जाने कितनी दूर निकल आई
कब किनारे पर पहुंचूंगी
सोच न पाई
लिये प्रश्नों का अम्बार मन में
ज्वार सा उठाने लगा
कभी निराशा हावी होती
फिर आशा का होता आभास
न जाने कया होगा ?
आई थी अकेली
जाना भी है अकेले
कोई नहीं है साथ
सोच किस बात का
जो होगा देखा जाएगा
कभी तो किनारा मिलेगा
भवसागर पार हो जाएगा |
आशा