मै एकाकी नौका पर सवार
खेलती लहरों के साथ
उत्तंग लहरों का संग
बहुत आकृष्ट करता था
जब अवसर हाथ आया
रोक न पाई खुद को
अकेले ही चल दी
बिना किसी को साथ लिये
तट छूटा तब भय न लगा
पर मध्य में आते ही
बह चली लहरों के संग
जाने कितनी दूर निकल आई
कब किनारे पर पहुंचूंगी
सोच न पाई
लिये प्रश्नों का अम्बार मन में
ज्वार सा उठाने लगा
कभी निराशा हावी होती
फिर आशा का होता आभास
न जाने कया होगा ?
आई थी अकेली
जाना भी है अकेले
कोई नहीं है साथ
सोच किस बात का
जो होगा देखा जाएगा
कभी तो किनारा मिलेगा
भवसागर पार हो जाएगा |
आशा
बहुत ही सुन्दर 👌,निराशा में उम्मीद का दीप जलाती रचना
जवाब देंहटाएंसादर
सूचना हेतु आभार सर |
जवाब देंहटाएंटिप्पणी हेतु धन्यवाद अनिता जी |
जवाब देंहटाएंगहन रचना ! बहुत सुन्दर ! प्रभु आप ही लगावे बेड़ा पार उदासी मन काहे को डरे !
जवाब देंहटाएंधन्यवाद टिप्पणी के लिए |टिप्पणी बहुत अच्छी है |
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