14 अप्रैल, 2020

मरुस्थल में कांटे नागफणी के




                    मरुस्थल में फूल  नागफणी के  लगते आकर्षण दूर से
छूने  का मन होता बहुत नजदीक से
पर पास आते ही कांटे चुभ जाते
जानलेवा कष्ट पहुंचाते |
लगते  उस शोड़सी  के समान
जिसका मुह चूम  स्पर्श सुख लेना चाहता  
पर हाथ बढाते ही सुई सी चुभती
कटु भाषण  की बरसात से |
है किसी की हिम्मत कहाँ
जो छाया को भी छू सके उसकी
बड़े पहरे लगे हैं आसपास
 मरुस्थल में नागफणी के काँटों  के  |
जैसे ही हाथ बढते हैं उसकी ओर
नागफनी के  कंटक चुभते हैं
चुभन से दर्द उठाता है
बिना छुए ही जान निकलने लगती है |
 वह है  नागफणी की सहोदरा सी
जिसकी रक्षा के लिए कंटक
दिन रात जुटे रहते हैं
भाई के रूप में या रक्षकों के साथ
कभी भूल कर भी अकेली नहीं छोड़ते |
 नागफणी और उसमें है गजब की समानता
वह शब्दों के बाण चलाती है डरती नहीं है
मरुस्थल के काँटों जैसे रक्षकों की मदद ले
दुश्मनों से टक्कर ले खुद को बचाती है

आशा

13 अप्रैल, 2020

आत्म मंथन






हंसने हंसाने के लिए
कोई तो बहाना  चाहिए
जिन्दगी है चार दिनों की
यह  नहीं भूलना  चाहिए |
आए थे संसार में  रोते हुए
 ज्यादा जीवन बिताया कभी
हंसते कभी सिसकते हुए
अब बारी आई  भक्ति में लीन होने की |
 वह भी लगती है असंभव
मन उलझा रहता सदा
 मद मत्सर  माया मोह में
 दूरी बनाने का कोई उपाय नहीं|  
जब आत्म मंथन किया
अपने गुण दोषों को परखा
पाई हजार त्रुटियाँ  खुद में
पर स्वीकार न कर पाई
यही   कमी रही मुझमें |
जिससे बच  नहीं पाई
इस गरूर में खोई रही 
मुझे कोई क्या समझाएगा
खुद को पूर्ण  समझती रही |
अब पश्च्याताप  से क्या लाभ
जिन्दगी की शाम आई
बिना आत्म मंथन के
बिना हरी के  भजन के  |
अब अंत समय आया है
भगवान की कैसी माया है
जान नहीं पाई अब तक
 कितना खो कर  क्या पाया है|
                             आशा