14 नवंबर, 2010

है तू क्या ?

है तू क्या मैं समझ नहीं पाती
एक हवा का झोंका
भी सह नहीं पाता
खिले गुलाब की पंखुड़ी सा
इधर उधर बिखर जाता
है नाजुक इतना कि
दर्द तक सहन नहीं होता
पंकज सा तैरता रहता
इस नश्वर सरोवर में
नहीं डरता किसी उर्मी से
ना ही आँच आने देता
अस्तित्व पर अपने
संगीत की मधुर स्वर लहरी
जैसे ही तुझे छू जाती 
तुझे स्पंदित कर जाती है
पर एक कटु वचन
तुझे हिला भी सकता है
जो भी हो तेरी विशालता
तेरी गहराई नापना मुश्किल है
है तू क्या ?
क्या है विशेष तुझमें
जानना बहुत कठिन है
कवियों ने या शायरों ने
तुझे समझा या ना समझा हो
पर जब भी नया सृजन होता है
तेरा संदर्भ जरूर होता है |
चाँद तारों पर लोग लिखते हैं
पर तुझ पर नगण्य लिखा हो
ऐसा भी नहीं है
दर्द बाँटने की  क्षमता की 
अदभुद मिसाल है तू
बोझ तले दबा हुआ हो
पर अहसास तक होने नहीं देता
तुझ पर जो भी लिखा जाये
बहुत कम लगता है
सच में बेमिसाल है तू
ए हृदय तुझे कैसे पहचानूँ
किस मिट्टी का बना है तू
है कितनी गहराई तुझ में
इसका आभास ही बहुत है |


आशा

10 टिप्‍पणियां:

  1. ए ह्रदय तुझे कैसे पहचानूं
    किस मिट्टी का बना है
    है कितनी गहराई तुझ में
    इसका आभास ही बहुत है

    बहुत ही प्रभावशाली कविता।

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  2. कितनी हैरत की बात है कि अपने अंतस पर कम और बहिर्जगत पर इतना ज़्यादा लिखा गया है। मृगतृष्णा!

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  3. बहुत सुन्दर ! एक हृदय ही है जिसमें आकाश सा विस्तार और सागर सी गहराई है और फिर भी यह नन्ही सी मुट्ठी के आकार में हमारे सीने में चुपचाप पड़ा रहता है और जिस पल हमने जीवन धारण किया उस पल से जीवनपर्यंत खामोशी से अथक अनवरत काम में लगा रहता है हमें जिलाए रखने के लिये ! सुन्दर रचना !

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  4. ए ह्रदय तुझे कैसे पहचानूं ,
    किस मिट्टी का बना है तू ,
    है कितनी गहराई तुझ में ,
    इसका आभास ही बहुत है |

    सच कहा ..हेइदी जहाँ एक ओर विशालता लिए हुए है तो कहीं कहीं कृपण भी हो जाता है ..बहुत अच्छी अभिव्यक्ति

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  5. चर्चा मंच के साप्ताहिक काव्य मंच पर आपकी रचना 16 -11-2010 मंगलवार को ली गयी है ...
    कृपया अपनी प्रतिक्रिया दे कर अपने सुझावों से अवगत कराएँ ...शुक्रिया ..


    http://charchamanch.blogspot.com/

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  6. इस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.

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  7. बहुत सुंदर आशा जी ... इस मन की गहराई तक कोई नहीं पहुँच पाया ...

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  8. दिल को छू लेने वाली कविता.

    सादर

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