13 जून, 2011

स्वार्थ सर्वोपरी


सारी सत्ता सारा बैभव

यहीं छूट जाता है

बस यादे रह जाती हैं

व्यक्तित्व की छाप की |

आकर्षण उनका भी

उन लोगों तक ही

सिमट जाता है

यदि कोई काम

उनका किया हो

या कोई अहसान

उन पर किया हो |

कुछ लोग ऐसे भी हैं

होता कोई न प्रभाव जिन पर

जैसे ही काम निकल जाता है

रास्ता तक बदल जाता है |

कहीं कुछ भी होता रहे

अनजान बने रहते हैं

भूले से भी यदि

पहुंच गये

तटस्थ भाव

अपना लेते हैं

जैसे पह्चानते ही न हों |

क्यूँ कि संवेदनाएं

मर गई हैं

वे तो वर्तमान में जीते हैं

कल क्या होगा

नहीं सोचते |

यदि दुनिया के सितम

बढ़ गए

उन्हें कंधा कौन देगा

उनके दुःखों को

बांटने के लिए |

आशा

8 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत सार्थक और सटीक
    अद्भुत सुन्दर रचना! आपकी लेखनी की जितनी भी तारीफ़ की जाए कम है!

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  2. आज की स्वार्थी दुनिया की सोच पर लिखी अच्छी रचना

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  3. बहुत सुंदर सार्थक और सटीक रचना।

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  4. अच्छी रचना ,बहुत सार्थक और सटीक

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  5. वर्तमान युग की व्यक्तिवादी सोच पर करारा प्रहार किया है ! बहुत सटीक एवं सशक्त रचना ! बधाई एवं शुभकामनायें !

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  6. bahut hi sunder bhav liye saarthak ,satic aur shaandaar rachanaa.badhaai sweekaren.




    please visit my blog.thanks.

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