26 सितंबर, 2011

मेरा अस्तित्व


तू बरगद का पेड़
और मैं छाँव तेरी
है यदि तू जलस्त्रोत
मैं हूँ जलधार तेरी |
तू मंदिर का दिया
और मैं बाती उसकी
अगाध स्नेह से पूर्ण
मैं तैरती उसमे |
तूने जो चाहा वही किया
उसे ही नियति माना
ना ही कोइ बगावत
ना ही विरोध दर्ज किया |
पर ना जाने कब
पञ्च तत्व से बना खिलौना
अनजाने में दरक गया
सुकून मन का हर ले गया |
कई सवाल मन में आए
वे अनुत्तरित भी न रहे
पर एक सवाल हर बार
आ सामने खडा हुआ |
है क्यूँ नहीं अस्तित्व मेरा
वह कहाँ गुम हो गया
मेरा वजूद है बस इतना
वह तुझ में विलीन हो गया |
आशा




15 टिप्‍पणियां:

  1. पञ्च तत्व से बना खिलौना
    अनजाने में दरक गया
    सुकून मन का हर ले गया |
    कई सवाल मन में आए
    वे अनुत्तरित भी न रहे

    गहन जीवन दर्शन है आपकी इस रचना में.... सुन्दर संवेदनशील अभिव्यक्ति...

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  2. अति सुन्दर , विलीन होना ही है.

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  3. वाह बहुत खूबसूरत भावो से सजी ये रचना

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  4. खुद का स्स्तित्व खो जाता है अक्सर तभी दूसरों के काम आ सकता है कोई ... जैसे बाटी और तेल ... दीपक में ..

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  5. जीवन-दर्शन से
    साक्षात्कार करवाती हुई
    प्रभावशाली रचना .... !

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  6. भावपूर्ण और प्रभावशाली रचना.....

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  7. सुन्दर भावों की बहुत सुन्दर अभिव्यक्ति ! पंच तत्व से बना यह खिलौना दरक कर जब उस शाश्वत के साथ एकाकार हो विलीन हो जाता है तो जीवन मृत्यु के चक्र से मुक्त हो निर्वाण पा जाता है ! यह पल हताशा का नहीं आनंदित होने का है ! बहुत सुन्दर रचना ! बधाई स्वीकार करें !

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  8. पंचतत्व से प्रभु-निर्मित काया का वजूद रहे न रहे । सदकर्मों की कीर्ति पताका फहरे, फहरे फहराता रहे॥ बहुत सुन्दर व मार्मिक रचना ! बधाई……

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