23 सितंबर, 2011

ओ अजनवी


जान न पाया कहाँ से आई
ओर हों कौन ओ अजनवी
जाने कब तुम्हारा आना
मेरे जीने का बहाना हों गया |
ये सलौना रूप और पैरहन
और आहट कदमों की
छिप न पाये हजारों में
ले चले दूर बहारों में |
दिल में हुई हलचल ऐसी
सम्हालना उसे मुश्किल हुआ
हर शब्द जो ओंठों से झरा
हवा में उछला फिज़ा रंगीन कर गया |
हों तुम पूरणमासी
या हों धुप सुबह की
साथ लाई हों महक गुलाब की
तुम्ही से गुलशन गुलजार हों गया |
चहरे का नूर और अनोखी कशिश
रंगीन इतनी कि
रौशनी का पर्याय हों गयी |
दिल में कुछ ऐसे उतारी
गहराई तक उसे छु गयी
वह काबू में नहीं रहा
कल्पना में खो गया |

आशा


12 टिप्‍पणियां:

  1. रौशनी का पर्याय हों गयी |
    दिल में कुछ ऐसे उतारी
    गहराई तक उसे छु गयी
    वह काबू में नहीं रहा
    कल्पना में खो गया |bhaut hi sundar....

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  2. रौशनी का पर्याय हों गयी
    दिल में कुछ ऐसे उतारी
    गहराई तक उसे छु गयी
    वह काबू में नहीं रहा
    कल्पना में खो गया
    बहुत ही बढ़िया
    सादर

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  4. चहरे का नूर और अनोखी कशिश
    रंगीन इतनी कि
    रौशनी का पर्याय हों गयी |
    बेहतरीन शब्द चयन और बहुत ही सशक्त भावाभिव्यक्ति ! अति सुन्दर !

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  5. बहुत ही सुन्‍दर शब्‍दों....बेहतरीन भाव....खूबसूरत कविता...

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  6. बहुत ही सशक्त भावाभिव्यक्ति|

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  7. अजनबी का कल्पना में उतरना प्रभावित कर गया. बधाई आशा जी.

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