22 सितंबर, 2011

मन बावरा


मन बावरा खोज रहा
घनी छाँव बरगद की
चाहत है उसमे
बेपनाह मोहब्बत की |
यहाँ वहाँ का भटकाव
और सब से होता अलगाव
अब सहन नहीं होता
एकांत पा बेचैन होता |
अब चाहता ठहराव
अपने धुमंतू जीवन में
समय भी ठहर जाए
भर दे नई ऊर्जा ह्रदय में |
अब तक अनवरत
भागता रहा
बचपन कब बीता
याद नहीं आता |
है सुख का पल क्या
जान नहीं पाता
बस भागता रहता
कुछ पाने की तलाश में |
चाहता है क्या ,जानता नहीं
पर है इतना अवश्य
कहीं गुम हो गयी है
पहचान मेरी |
अब ऊब गया इस बेरंग उदास
एक रस जीवन से
बच नहीं पाया
अस्थिरता
के दंशों से |
जन्म से आज तक
पल दो पल की भी
शान्ति न मिल पाई
इस बंजारा जीवन में |
पर अब भी है दुविधा बाकी
क्या यह ठहराव
दे पाएगा आज भी
कुछ पल का सुकून |

आशा



















15 टिप्‍पणियां:

  1. मन के बव्रेपन को बखूबी उकेरा है ... ठहराव क्यों ? जीवन चलने का नाम है

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  2. अन्तःस्थल को स्पर्श करती रचना

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  3. जन्म से आज तक
    पल दो पल की भी
    शान्ति न मिल पाई
    इस बंजारा जीवन में |

    सच कहा आपने, यायावर जीवन के यही मायने हैं. बहुत सुन्दर मन को छू लेने वाली रचना...

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  4. अंतर मन को छू लेने वाली रचना| धन्यवाद|

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  5. कल 23/09/2011 को आपकी यह पोस्ट नयी पुरानी हलचल पर लिंक की जा रही हैं.आपके सुझावों का स्वागत है .
    धन्यवाद!

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  6. बहुत मासूम सी खूबसूरत कविता. धन्यवाद|

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  7. बहुत ही मर्मस्पर्शी रचना प्रस्तुत की है आपने!

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  8. जीवन अविराम गति से चलने का नाम है ! वही श्रेयस्कर भी है ! ठहरा हुआ पानी जैसे प्रदूषित हो जाता है वैसे ही ठहरा हुआ जीवन अनुपयोगी और व्यर्थ हो जाता है ! सतत गतिशील जीवन ऊर्जा और चेतनता का परिचायक है इसलिए इस ठहराव की कामना छोड़ दें ! शुभकामनायें !

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  9. इस बंजारा जीवन में |
    पर अब भी है दुविधा बाकी
    क्या यह ठहराव
    दे पाएगा आज भी
    कुछ पल का सुकून |
    बहुत ही अच्‍छा लिखा है ... आभार ।

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