07 जून, 2014

कशिश







 
 उन्मीलित अँखियाँ
मन मोहिनी  अदाएं
बारम्बार आकृष्ट करतीं
दूरी उनसे न हो पाती 

जब भी छिटकना चाहता
उससे दूरी बढ़ाना चाहता
दुगने वेग से धक्का लगता
सजदे में सर झुकाने लगता |

है कशिश ऐसी उसमें
जो राहें बाधित करती
चितवन हिरनी जैसी
चाहत को अंजाम देती |

निमिष मात्र यदि  हो ओझल
मैं खोया खोया रहता हूँ
उनपचास पवन बहने लगते हैं
खुद को भूल जाता हूँ |
आशा

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