सारी रात करवटें बदलती रहीं
जब भी कोशिश की
और अधिक नजदीक आईं
मुठ्ठी में जब कैद किया
हाथों से फिसलती गईं
रिक्त हुए जब हाथ
केवल हथेलियों पर
मिट्टी चिपकी रह गई
मन को हुआ संताप
ऐसे कैसे यादें बह गई
पर थी वे एक ख्याल
कैसे रुक जातीं
जरासी जगह काफी थी
आने जाने के लिए
या दिल में समाने के लिए
जब किसी ने बरजा
शब्दों का न मिला साथ
मन के भाव स्पष्ट न कर पाई
खुद में सिमट कर रह गई
यादें तो यादें है
जाने कब बापिस आजाएं
वह आखें मूंदे रह गई
सारे दर्द सहती गई
कभी विद्रोही दिल न हुआ
यादें जैसी थीं वैसी ही रहीं
कभी धुंधली हो जातीं
कभी बहुत गहरी हो जातीं
आशा
यादें तो यादें है
जवाब देंहटाएंजाने कब बापिस आजाएं
बहुत सुंदर ,यादें कब दबे पाँव आ जाती है खुद को ही खबर नहीं होती ,सादर नमस्कार
आज सलिल वर्मा जी ले कर आयें हैं ब्लॉग बुलेटिन की २३५० वीं बुलेटिन ... तो पढ़ना न भूलें ...
जवाब देंहटाएंतेरा, तेरह, अंधविश्वास और ब्लॉग-बुलेटिन " , में आपकी पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !
सूचना हेतु आभार सर |
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रस्तुति का लिंक 14.3.2018 को चर्चा मंच पर चर्चा - 3274 में दिया जाएगा
जवाब देंहटाएंहार्दिक धन्यवाद
सुप्रभात
हटाएंसूचना हेतु आभार सर |
बहुत सुन्दर
जवाब देंहटाएंधन्यवाद अनीता जी टिप्पणी के लिए |
हटाएंयादें तो यादें है। सुंदर रचना। बधाई। सादर।
जवाब देंहटाएंसुप्रभात
जवाब देंहटाएंधन्यवाद टिप्पणी के लिए वीरेन्द्र जी |
यादों का तिलस्म बहुत जटिल होता है ! कौन इससे आसानी से मुक्त हो पाता है ! बहुत बढ़िया !
जवाब देंहटाएंसुप्रभात
जवाब देंहटाएंटिप्पणी के लिए धन्यवाद |