25 नवंबर, 2009

मनोभाव


मनोभाव पिघल कर आ जाते
खुली किताब से चेहरे पे
अनचाही बातों का भी,
इजहार कराते चेहरे से |
ये राज कभी न समझ पाए
अपने बेगाने कहने से
अहसास तभी तक बाकी है
जो भाव समझ ले चेहरे से|
रहते जो दूर बसेरे से
सहते दूरी को गहरे से
मनोभाव सिमट कर रह जाते
अंतर्मन में धीरे से .........|


आशा

4 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत खूबसूरत भाव हैं ।
    रहते जो दूर बसेरे से
    सहते दूरी को गहरे से
    बिल्कुल सच कहा है आपने । अति सुन्दर ।

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  2. रहते जो दूर बसेरे से,
    सहते दूरी को गहरे से,
    मनोभाव सिमट कर रह जाते,
    अंतर्मन में धीरे से .........
    बहुत प्रभावी पंक्तियाँ

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  3. ...बहुत खूबसूरत हैं ये मनोभाव ...
    सटीक..गहन रचना ...

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  4. खूबसूरत मनोभाव गहन विचार लिए सुन्दर अभिव्यक्ति....

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