25 नवंबर, 2009

मनोभाव


मनोभाव पिघल कर आ जाते
खुली किताब से चेहरे पे
अनचाही बातों का भी,
इजहार कराते चेहरे से |
ये राज कभी न समझ पाए
अपने बेगाने कहने से
अहसास तभी तक बाकी है
जो भाव समझ ले चेहरे से|
रहते जो दूर बसेरे से
सहते दूरी को गहरे से
मनोभाव सिमट कर रह जाते
अंतर्मन में धीरे से .........|


आशा

5 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत खूबसूरत भाव हैं ।
    रहते जो दूर बसेरे से
    सहते दूरी को गहरे से
    बिल्कुल सच कहा है आपने । अति सुन्दर ।

    जवाब देंहटाएं
  2. रहते जो दूर बसेरे से,
    सहते दूरी को गहरे से,
    मनोभाव सिमट कर रह जाते,
    अंतर्मन में धीरे से .........
    बहुत प्रभावी पंक्तियाँ

    जवाब देंहटाएं
  3. ...बहुत खूबसूरत हैं ये मनोभाव ...
    सटीक..गहन रचना ...

    जवाब देंहटाएं
  4. खूबसूरत मनोभाव गहन विचार लिए सुन्दर अभिव्यक्ति....

    जवाब देंहटाएं
  5. वाह, क्या खूबसूरती से तुमने भावनाओं को शब्द दिए हैं! ये कविता बिल्कुल उस एहसास को पकड़ती है जब चेहरे बोल उठते हैं और दिल चुप रहता है। ऐसा लगता है तुमने इंसानी रिश्तों की अनकही भाषा को बड़ी नर्मी से बयान कर दिया है — सच्ची, कोमल और बेहद सजीव कविता।

    जवाब देंहटाएं

Your reply here: