03 दिसंबर, 2009

पहेली

है जिन्दगी
एक अजीब पहेली
कभी चलती है
कभी ठहर जाती है|
जब चलती है
तब अहसास करती है
न जाने और कितने
पड़ाव अभी बाकी हैं |
जिन्दगी की रफ्तार
कभी ज्यादा
तो कभी कम हो जाती है|
यही पड़ाव है
या जिन्दगी का ठहराव
यही बात मुझे
समझ नहीं आती
और यह पहेली
अनसुलझी ही रह जाती |
यह शाम का धुँधलका
कहता है
साँस अभी बाकी है
न हो उदास
आस अभी बाकी है |
जीवन की शाम का
शायद यहीं कहीं है विराम
पर हो क्यूँ ऐसा सोच
पूरी रात अभी बाकी है |


आशा

2 टिप्‍पणियां:

  1. Day by day your writing tends to touch more intricate and philosophical aspects of human mind. Very nice poem . Keep writing to encourage youngsters like me. Congrats.

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  2. धन्यवाद साधना टिप्पणी के लिए |

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