09 दिसंबर, 2009

ज़िन्दगी

यह ज़िन्दगी की शाम
अजब सा सोच है
कभी है होश
कभी खामोश है |
कभी थे स्वाद के चटकारे
चमकती आँखों के नज़ारे
पर सब खो गये गुम हो गये
खामोश फ़िजाओं में हम खो गये |
कभी था केनवास रंगीन
जो अब बेरंग है
मधुर गीतों का स्वर
बना अब शोर है
पर विचार श्रंखला में
ना कोई रोक है
और ना गत्यावरोध है |
हाथों में था जो दम
अब वे कमजोर हैं
चलना हुआ दूभर
बैसाखी की जरूरत और है
अपनों का है आलम यह
अधिकांश पलायन कर गये
बचे  थे जो
वो कर अवहेलना
निकल गये
और हम बीते कल का
फ़साना बन कर रह गये |

आशा

7 टिप्‍पणियां:

  1. Good composition but the pessimistic echo of the poem leads to nowhere. No matter physical health deteriorates with growing age our mental health is capable enough to make us take the reins in our hands.

    जवाब देंहटाएं

  2. कल 09/12/2012 को आपकी यह बेहतरीन पोस्ट http://nayi-purani-halchal.blogspot.in पर लिंक की जा रही हैं.आपकी प्रतिक्रिया का स्वागत है .
    धन्यवाद!

    जवाब देंहटाएं
  3. aisa hi hota hai....par agar dil jawan hain...aur ghar walon ka pyar hai tho humare bade khushi khushi apne jeewan ki sham njoy kar sakte hain...

    जवाब देंहटाएं
  4. बहुत सुन्दर रचना आशा जी....

    सादर
    अनु

    जवाब देंहटाएं
  5. जीवन की गाथा कहती ...गहन अभिव्यक्ति ...
    शुभकामनायें आशा जी ॰

    जवाब देंहटाएं

Your reply here: